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________________ गुरुचिंतन ४. प्रवचनसार, गाथा ११६ में भी कोई पर्याय शाश्वत नहीं है - ऐसा कहकर अनित्यता बताई गई है। (२०-२१) सर्वगतनय और असर्वगतनय "आत्मद्रव्य सर्वगतनय से खुली हुई आंख की भांति सर्ववर्ती (सबमें व्याप्त होनेवाला) है असर्वगतनय से बन्द आंख की भांति अपने में रहनेवाला है।" . १. नय क्रमांक २०-२५ में ज्ञान और ज्ञेय सम्बन्धी चर्चा है। ज्ञान लोकालोक को जानता है। अतः जानने की अपेक्षा सर्वगत है, परन्तु अपने असंख्य प्रदेशों में ही रहता है, इसलिए असर्वगत है। २. 'सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानन्द रसलीन' इस पंक्ति. में इन दोनों नयों का सहज प्रयोग हो गया है। ३. अपने असंख्य प्रदेशों में रहकर लोकालोक को जानने की योग्यता सर्वगतधर्म है और इसे जाननेवाला ज्ञान सर्वगतनय है। लोकालोक को जानते हुए भी उनसे भिन्न रहने की योग्यता असर्वगत धर्म है और इसे जानने वाला ज्ञान असर्वगतनय है। ४. अन्यमत में विष्णु को सर्वव्यापी कहा गया है, परन्तु आत्मा अपने ज्ञान द्वारा लोकालोक में व्याप्त होता है अर्थात् मात्र जानता है - यही उसका सर्वगतधर्म है। प्रवचनसार गाथा २३ में भी इसी अपेक्षा को सर्वगत कहा गया है। ५. इन दोनों नयों को जानने से ज्ञान का स्वरूप ज्ञान होता है कि वह समस्त ज्ञेयों को जानते हुए भी अपने प्रदेशों में ही रहता है। (२२-२३) शून्यनय और अशून्यनय "आत्मद्रव्य शून्यनय से खाली घर की भाँति अकेला
SR No.007255
Book TitleGuru Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMumukshuz of North America
PublisherMumukshuz of North America
Publication Year2013
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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