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गुरुचिंतन जाननेवाला ज्ञान सम्यक् एकान्तरूप है तथा अपेक्षा रहित जाननेवाला ज्ञान मिथ्या एकान्तरूप होता है।
किसी व्यक्ति में ईमानदारी, बुद्धिमत्ता आदि विशेषतायें गुण के रूप में जानी जायेंगी, परन्तु छोटा-बड़ा, पिता-पुत्र, पतलामोटा आदि को धर्म के रूप में जाना जाएगा, क्योंकि उसमें परस्पर विरुद्ध अपेक्षाओं से एक ही साथ छोटा-बड़ा, पिता-पुत्र आदि दोनों योग्यतायें विद्यमान है।
यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि कोई विशेषता शक्ति एवं धर्म दोनों रूपों में जानी जाती है। उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व शक्ति भी है। उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व स्वरूप अस्तित्व गुण भी है और सत् धर्म भी है। इस प्रकरण पर विचार-विमर्श की आवश्यकता है। अब ४७ नयों के स्वरूप पर संक्षेप में विचार किया जाता है।
(१-२)
द्रव्यनय और पर्यायनय वह आत्मद्रव्य द्रव्यनय से, पटमात्र की भौति, चिन्मात्र है; पर्यायनय से तंतुमात्र की भाँति दर्शनज्ञानादिमात्र है।
जैसे वस्त्र में अनेक ताने-बाने, रंग-रूप तथा आकारादि होते हैं, परन्तु उन्हें गौण करके मात्र वस्त्र.को जानना द्रव्य नय है तथा उसके रंग-रूपादि भेदों जानना पर्यायनय है। उसीप्रकार मात्र चित् स्वभाव को जानना द्रव्यनय है तथा ज्ञान-दर्शनादि भेदों को जानना पर्यायनय
आत्मा में द्रव्य नाम का एक धर्म है जिसका स्वरूप चैतन्य मात्र है अथवा द्रव्य धर्म से आत्मा का चैतन्य स्वभाव उसके सम्पूर्ण गुण-पर्यायों में व्याप्त है और पर्याय धर्म से ज्ञान दर्शनादि भेद रूप रहने की योग्यता है।