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________________ गुरुचिंतन का स्वभाव अन्य-अन्य तो होता है, प्रत्येक पर्याय अर्थात् औपशमिकादि चारों भावों या स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि का अपना-अपना स्वभाव होता है। तत्त्वार्थसूत्र में औपशमिकादि चारों भावों को जीव का स्वभाव कहा ही है 29 "औपशमिक क्षायिका भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदायिक पारिणामिकश्च ।” आत्मख्याति टीका में स्वभाव को ही वस्तु कहा है:" इह खलु स्वभाव मात्रं किल वस्तु" - गाथा ७१ की टीका इसप्रकार स्वभाव शब्द का अर्थ गहराई से विचारणीय है । २. गुण - द्रव्य में अनन्त विशेषताएँ ( खूबियाँ) त्रिकाली शक्ति के रूप में विद्यमान रहती हैं। ये विशेषताएँ ही द्रव्य के गुण हैं जिनका भाव अंग्रेजी के क्वालिटी शब्द से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है। जीव में ज्ञान - दर्शन आदि अनन्त गुण हैं। ३. शक्ति - प्रत्येक गुण में त्रिकाल कायम रहने की, उसके स्वरूप के अनुसार कार्य करने की जो सामर्थ्य है वही उसकी शक्ति है। अर्थात् शक्तियाँ प्रायः गुणों के रूप में पाई जाती है। एक गायक में मधुर कण्ठ से गाने का गुण है तथा लम्बे समय तक गा सके यह उसकी शक्ति है। ज्ञान आत्मा का गुण है तथा अपने सुनिश्चत ज्ञेयों को जानने की उसमें शक्ति है। प्रत्येक गुण में अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार कार्य करने की शक्ति होना ही चाहिए अन्यथा उसकी सार्थकता क्या होगी ? ४. धर्म - धर्म से आशय मुख्यता अस्ति - नास्ति, नित्यअनित्यादि परस्पर विरोधी स्वभावों से है। इनमें गुणों के समान उत्पादव्यय रूप पर्यायें नहीं होती, परन्तु वस्तु में उस धर्म के अनुरूप योग्यता होती है, जिसे किसी अपेक्षा से ही जाना / कहा जाता है। अपेक्षा सहित
SR No.007255
Book TitleGuru Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMumukshuz of North America
PublisherMumukshuz of North America
Publication Year2013
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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