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कलकल कलकल कप मृत्यु महोत्सव कलकलाकार, कलकल्या
यह तन सात कुधातमई है, देखत ही घिन आवै । चर्मलपेटी ऊपर सोहै, भीतर विष्टा पावै॥ अतिदुर्गन्ध अपावन सों यह, मूरख प्रीति बढ़ावै । देह विनाशी, यह अविनाशी नित्य स्वरूप कहावै ॥८॥ यह तन जीर्ण कुटीसम आतम! यातें प्रीति न कीजै । नूतन महल मिलै जब भाई, तब यामें क्या छीजै॥ मृत्यु भये से हानि कौन है, याको भय मत लावो । समता से जो देह तजोगे, तो शुभतन तुम पावो ॥९॥ मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, इस अवसर के माँही । जीरन तन से देत नयो यह, या सम साहू नाहीं॥ या सेती इस मृत्यु समय पर, उत्सव अति ही कीजै । क्लेश भाव को त्याग सयाने, समता भाव धरीजै ॥१०॥ जो तुम पूरब पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई । मृत्यु मित्र बिन कौन दिखावै, स्वर्ग सम्पदा भाई॥ राग द्वेष को छोड़ सयाने, सात व्यसन दुखदाई । अन्त समय में समता धारो, परभव पंथ सहाई ॥११॥ कर्म महादुठ बैरी मेरो, ता सेती दुख पावै । तन पिंजरे में बंध कियो मोहि, यासों कौन छुड़ावै॥ भूख तृषा दुख आदि अनेकन, इस ही तन में गाढ़े । मृत्युराज अब आय दयाकर, तन पिंजर सों काढ़े ॥१२॥ नाना वस्त्राभूषण मैंने, इस तन को पहिराये । गन्ध-सुगन्धित अतर लगाये, षट रस अशन कराये ॥ रात दिना मैं दास होय कर, सेव करी तन केरी । सो तन मेरे काम न आयो, भूल रह्यो निधि मेरी ॥१३॥ मृत्युराज को शरन पाय, तन नूतन ऐसो पाऊँ । जामें सम्यकरतन तीन लहि, आठों कर्म खपाऊँ॥ देखो तन सम और कृतघ्नी, नाहिं सु या जगमाहीं । मृत्यु समय में ये ही परिजन, सब ही हैं दुखदाई ॥१४॥ यह सब मोह बढ़ावन हारे, जिय को दुर्गति दाता । इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुख साता॥ मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, माँगो इच्छा जेती । समता धरकर मृत्यु करो तो, पावो सम्पति तेती ॥१५॥
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