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कलकलाकात कर कब मृत्यु महोत्सव का कुल कलाकारकम्यू
चौ-आराधन सहित प्राण तज, तो ये पदवी पावो । हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग मुकति में जावो ॥ मृत्यु कल्पद्रुम सम नहिं दाता, तीनों लोक मँझारे । ताको पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे ॥१६॥ इस तन में क्या रात्रै जियरा, दिन-दिन जीरन हो है । तेज कान्ति बल नित्य घट त है, या सम अथिर सु को है॥ पाँचों इन्द्री शिथिल भई अब, स्वास शुद्ध नहिं आवै । तापर भी ममता नहिं छोड़े, समता उर नहिं लावे ॥१७॥ मृत्युराज उपकारी जिय को, तनसों तोहि छुड़ावै । नातर या तन बन्दीगृह में, पर्यो पर्यो बिललावै॥ पुद्गल के परमाणु मिलके, पिण्डरूप तन भासी । यही मूरती मैं अमूरती, ज्ञान जोति गुण खासी ॥१८॥ रोग शोक आदिक जो वेदन, ते सब पुद्गल लारे । मैं तो चेतन व्याधि बिना नित, हैं सो भाव हमारे ॥ या तन सों इस क्षेत्र सम्बन्धी, कारण आन बन्यो है । खानपान दे याको पोष्यो, अब समभाव ठन्यो है ॥१९॥ मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान बिन, यह तन अपनो जान्यो । इन्द्रीभोग गिने सुख मैंने, आपो नाहिं पिछान्यो। तन विनशन” नाश जानि निज, यह अयान दुखदाई। कुटु म आदि को अपनी जान्यो, भूल अनादी छाई ॥२०॥ अब निज भेद जथारथ समझ्यो, मैं हूँ ज्योतिस्वरूपी । उपजै विनसै सो यह पुद्गल, जान्यो याको रूपी॥ इष्ट ऽनिष्ट जेते सुख दुख हैं, सो सब पुद्गल सागे । मैं जब अपनो रूप विचारों, तब वे सब दुख भागे ॥२१॥ बिन समता तनऽनंत धरे मैं, तिनमें ये दुख पायो । शस्त्र घाततेऽनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो॥ बार अनन्त ही अग्नि माँहिं जर, मूवो सुमति न लायो । सिंह व्याघ्र अहिऽनन्तबार मुझ, नाना दुःख दिखायो ॥२२॥ बिन समाधि ये दुःख लहे मैं, अब उर समता आई। मृत्युराज को भय नहिं मानों, देवै तन सुखदाई ॥ याते जब लग मृत्यु न आवै, तब लग जप-तप कीजै । जप-तप बिन इस जग के माँहीं, कोई भी ना सीजै ॥२३॥