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मृत्यु महोत्सव
अनार्तः शान्तिमान् मर्त्यो, न तिर्यग्नापि नारकः । धर्म्य - ध्यानी पुरो मर्त्योऽनशनी त्वमरेश्वरः ॥१५॥
अन्वयार्थ - ( अनार्तः) पीड़ा-रहित, (शान्तिमान् ) शान्तिसंपन्न ( मर्त्यः) मनुष्य ( पुरः) आगामी जन्म में (न तिर्यक्) न तिर्यञ्च, (नापि ) न ही (नारकः) नारक होता है। (धर्म्य - ध्यानी ) धर्म्यध्यानी एवं ( अनशनी मर्त्यः) उपवासी मनुष्य (तु) तो (अमरेश्वरः) देवों का इन्द्र होता है ।
जो नर शान्त - निराकुल होता, मरकर कष्ट नहीं पाता, पशु-गति में वह जन्म न लेता, नरकों में भी ना जाता । मरण-काल को निकट जानकर, जलाहार भी जो छोड़े, धर्म- ध्यान करके वह नाता, स्वयं इन्द्र- पद से जोड़े ॥
अन्तर्ध्वनि : जो दुःखी नहीं है, शान्त है, और जीवन के अन्तिम दिन उपवासपूर्वक धर्म्यध्यान में तत्पर हुआ है, वह तिर्यञ्च और नरकगति में उत्पन्न न होकर देवों का इन्द्र बनता है ।
Essence: A human, who is not in pain but at peace, cannot reincarnate in the animal or plant ́ kingdom nor can he ever drop down into the Hell. In the end, he who fasts and performs Dharma-dhyān— religious meditation, becomes the lord of celestial beings.
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