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कलाकारणाका समकालाहब मृत्यु महोत्सव कखणखणाकालमत्कालणाकडू
तप्तस्य तपसश्चापि, पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्यापि, फलं मृत्युः समाधिना ॥१६॥
अन्वयार्थ-(तप्तस्य) तपे हुए (तपसः च अपि) तप का, (पालितस्य) पाले हुए (व्रतस्य च) व्रत का और (पठितस्य) पढ़े हुए (श्रुतस्य) शास्त्रका (अपि) भी (फलं) फल (समाधिना) समाधि-पूर्वक (मृत्युः) मृत्यु है।
। तपे हुए तप का जो फल है, व्रत-पालन का अन्य नहीं,
और पढ़ा जो धर्म-शास्त्र को, उसका फल भी एक वही। सकल-धर्म का वह अनुपम फल, प्रभुवर ने भव-हरण कहा, जीवन मन्दिर, उच्च-शिखर व्रत, स्वर्ण-कलश सन्मरण महा॥
अन्तर्ध्वनि : तपे गये तप का, पाले गये व्रत का और पढ़े गये शास्त्र का एक ही फल 'समाधिपूर्वक मरण का वरण' है।।
Essence : The fruit of penances performed, vows observed and scriptures studied is one and be the same-Deep trance at the time of Death!