________________
कलाकला कला कलाकण मृत्यु महोत्सव
कलकल कुखपणाकालापा-कृष्ण
यत्फलं प्राप्यते सद्भिव्रतायास-विडम्बनात् । तत्फलं सुख-साध्यं स्यान्मृत्यु-काले समाधिना ॥१४॥
अन्वयार्थ - (सद्भिः) सत्पुरुषों द्वारा (व्रतायासविडम्बनात्) व्रतों के पुरुषार्थ-संबन्धी क्लेश से (यत् फलं) जो - फल (प्राप्यते) प्राप्त किया जाता है, (मृत्युकाले) मृत्यु-काल में । (समाधिना) समाधि के द्वारा (तत् फलं) वह फल (सुख। साध्यं) सुखपूर्वक साधने-योग्य (स्यात्) हो सकता है।
सजन और विवेकी मानव, पाप-पंक से डरते हैं, अतः व्रतों को धारण करके, उनका पालन करते हैं। इस उद्यम का जो फल होता, उसको वह नर भी पाता, जो बड़भागी मरण-काल में, सत्समाधि को अपनाता॥
अन्तर्ध्वनि : जिस फल को सज्जन मनुष्य व्रताचरण-संबन्धी प्रयत्न के क्लेश उठाकर प्राप्त करते हैं, मृत्युकाल में समाधि द्वारा वही फल सुख-साध्य अर्थात् अनायास प्राप्त हो जाता है।
Essence : Man of character, on observing the inconveniences of their great vows, after much effort attains their fabulous fruits. These fruits are easily attainable for aspirants who get immersed in deep trance, at the end.