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जैन शतक
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५२. श्री चन्द्रप्रभ के पूर्वभव
(गीता) श्रीवर्म भूपति पालि पुहमी, स्वर्ग पहले सुर भयौ। पनि अजितसेन छखंडनायक, इन्द्र अच्युत मैं थयौ। वर पद्मनाभि नरेश निर्जर, वैजयन्ति विमान मैं। चंद्राभ स्वामी सातवें भव, भये पुरुष पुरान मैं ॥ ८३ ॥ आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ के ७ भव क्रमशः इसप्रकार हैं :
१. श्रीवर्मा नामक राजा, २. पहले स्वर्ग में देव, ३. अजितसेन चक्रवर्ती, ४. सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र, ५. पद्मनाभि राजा, ६. वैजयन्त नामक दूसरे अनुत्तर विमान में देव, ७. चन्द्रप्रभ स्वामी।
५३. श्री शांतिनाथ के पूर्वभव
(सवैया) सिरीसेन, आरज, पुनि स्वर्गी, अमिततेज खेचर पद पाय। सुर रविचूल स्वर्ग आनत मैं, अपराजित बलभद्र कहाय॥ अच्युतेन्द्र, वनायुध चक्री, फिर अहमिन्द्र, मेघरथ राय। सरवारथसिद्धेश, शांति जिन, ये प्रभु की द्वादश परजाय ।। ८४ ॥ सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ के १२ भव क्रमशः इसप्रकार हैं :
१. राजा श्रीषेण, २. भोगभूमि में आर्य, ३. स्वर्ग में देव, ४. अमिततेज नामक विद्याधर, ५. तेरहवें स्वर्ग में रविचूल नामक देव, ६. अपराजित नामक बलभद्र, ७. सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र, ८. वज्रायुध चक्रवर्ती, ९. अहमिन्द्र, १०. राजा मेघरथ, ११. स्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र, १२. शान्तिनाथ स्वामी।
५४. श्री नेमिनाथ के पूर्वभव
(छप्पय) पहले भव वन भील, दुतिय अभिकेतु सेठ घर। तीजे सर सौधर्म, चौथ चिन्तागति नभचर ॥ पंचम चौथे स्वर्ग, छठें अपराजित राजा।
अच्युतेंद्र सातवें अमरकुलतिलक विराजा॥ सुप्रतिष्ठ राय आठम, नवें, जन्म जयन्त विमान धर । फिर भये नेमि हरिवंश-शशि, ये दश भव सुधि करहु नर ।। ८५॥ ।
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