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जैन शतक
तथा यह मनरूपी हाथी सिद्धान्त (शास्त्र) रूपी सरोवर में स्नान करके भी पापरूपी धूल से खेल रहा है, अपने इन्द्रियरूपी कानों को चपलता - पूर्वक बारम्बार हिला रहा है और कुमतिरूपी हथिनी के साथ रतिक्रीड़ा कर रहा है।
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इस प्रकार यह मनरूपी हाथी अत्यधिक मदोन्मत्त होता हुआ स्वच्छंदतापूर्वक घूम रहा है, गुणरूपी राहगीर इसके पास तक नहीं आ रहे हैं; अत: इसे वैराग्यरूपी स्तंभ से बाँधो ।
तात्पर्य यह है कि हमें अपने चंचल मन को वैराग्य- भावना के द्वारा स्थिर या एकाग्र करना चाहिए, अन्यथा यह हमारे ज्ञान, शील आदि सर्व गुणों का विनाश कर देगा और हमारे ऊपर गुरुवचनों व जिनवचनों का कोई असर नहीं होने देगा। जबतक हमारा मन चंचल है तब तक कोई सद्गुण हमारे समीप तक नहीं आएगा।
विशेष :- यहाँ मन को हाथी की उपमा देते हुए कवि ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सांगरूपक का निर्माण किया है। आचार्य गुणभद्र ने भी अपने 'आत्मानुशासन' (श्लोक १७० ) में मन को विविध प्रकार से बन्दर की उपमा देते हुए इसीप्रकार का अभिप्राय प्रकट किया है।
३९. गुरु-उपकार ( कवित्त मनहर )
ढई - सी सराय काय पंथी जीव वस्यौ आय,
रत्नत्रय निधि जापै मोख जाकौ घर है । मिथ्या निशि कारी जहाँ मोह अन्धकार भारी,
कामादिक तस्कर समूहन को थर है ॥ सोवै जो अचेत सोई खोवै निज संपदा कौ,
तहाँ गुरु पाहरु पुकारें दया कर है । गाफिल न हूजै भ्रात ! ऐसी हैं अँधेरी रात,
जाग रे बटोही ! इहाँ चोरन को डर है ॥ ६८ ॥
हे भाई ! यह शरीर ढह जाने वाली धर्मशाला के समान है। इसमें एक जीवरूपी राहगीर आकर ठहरा हुआ है। उसके पास रत्नत्रयरूपी पूँजी है और मोक्ष उसका घर है । यात्रा के इस पड़ाव पर मिथ्यात्वरूपी काली रात है, मोहरूपी घोर अन्धकार है और काम-क्रोध आदि लुटेरों के झुण्डों का निवास है ।