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________________ ५२ जैन शतक . तो यह है कि नारियों के स्तन स्पष्टतया दो मांसपिण्ड हैं, जिनके मुँह में साधु पुरुषों ने राख भर दी है (अर्थात् उनकी अत्यन्त उपेक्षा कर दी है), इसी वजह से उनका अग्रभाग काला हो गया है। . (मत्तगयन्द सवैया) ए विधि ! भूल भई तुमते, समुझे न कहाँ कसतूरि बनाई। दीन कुरंगन के तन मैं, तृन दंत धरै करुना किन' आई॥ क्यौं न करी तिन जीभन जे, रसकाव्य करें पर कौं दुखदाई। साधु-अनुग्रह दुर्जन-दण्ड, दुहू सधते विसरी चतुराई॥६६॥ हे विधाता ! तुमसे भूल हो गई। तुम नहीं समझ पाये कि कस्तूरी कहाँ बनाना चाहिए और तुमने बेचारे उन असहाय हिरणों के शरीर में कस्तूरी बना दी जो अपने दाँतों में घास-तृण लिये रहते हैं । तुम्हें इन हिरणों पर दया क्यों नहीं आई? हे विधाता ! तुमने यह कस्तूरी उनकी जीभ पर क्यों नहीं बनाई जो जगत् का अहित करने वाली काव्यरचना करते हैं? ऐसा करने से सज्जनों पर कृपा भी हो जाती और दुर्जनों को दण्ड भी मिल जाता, दोनों ही प्रयोजन सिद्ध हो जाते। पर क्या बतायें, तुम तो अपनी सारी चतुराई भूल गये। ३८. मन-रूपी हाथी (छप्पय) ज्ञानमहावत डारि सुमतिसंकल गहि खंडै। गुरु-अंकुश नहिं गिनै ब्रह्मव्रत-विरख विहंडै॥ कर सिधंत-सर न्हौन केलि अघ-रज सौं ठाने । करन-चपलता धरै कुमति-करनी रति मानै॥ डोलत सछन्द मदमत्त अति, गुण-पथिक न आवत उरै। वैराग्य-खंभ से बाँध नर, मन-मतंग विचरत बुरै ॥६७॥ हे मनुष्य ! तुम्हारा मनरूपी हाथी बुरी तरह विचरण कर रहा है, तुम इसे वैराग्यरूपी स्तंभ से बाँधो। इस मनरूपी हाथी ने ज्ञानरूपी महावत को गिरा दिया है, सुमतिरूपी साँकल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये हैं, गुरुवचनरूपी अंकुश की उपेक्षा कर रखी है और ब्रह्मचर्यरूपी वृक्ष को उखाड़ फेंका है। १. पाठान्तर : नहिं।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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