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जैन शतक
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३३. परस्त्रीसेवन-निषेध
(छप्पय) कुगति-वहन गुनगहन-दहन दावानल-सी है। सुजसचंद्र-घनघटा देहकृशकरन् खई है॥ धनसर-सोखन धूप धरमदिन-साँझ समानी।
विपतिभुजंग-निवास बांबई वेद बखानी॥ इहि विधि अनेक औगुन भरी, प्रानहरन फाँसी प्रबल। मत करहु मित्र ! यह जान जिय, परवनिता सौं प्रीति पल ॥५७॥
परनारी-सेवन खोटी गति में ले जाने के लिए वाहन है, गुणसमूह को जलाने के लिए जंगल की सी भयानक आग है, उज्ज्वल यशरूपी चन्द्रमा को ढकने के लिए बादलों की घटा है, शरीर को कमजोर करने के लिए क्षयरोग (टी.बी.) है, धनरूपी सरोवर को सुखाने के लिए धूप है, धर्मरूपी दिन को अस्त करने के लिए सन्ध्या है और विपत्तिरूपी सर्यों के निवास के लिए बाँबी है। शास्त्रों में परनारी-सेवन को इसी प्रकार के अन्य भी अनेक दुर्गुणों से भरा हुआ कहा गया है। वह प्राणों को हरने के लिए प्रबल फाँसी है।।
ऐसा हृदय में जानकर हे मित्र ! तुम कभी पल भर भी परस्त्री से प्रेम मत करो। .
३४. परस्त्रीत्याग-प्रशंसा
. (दुर्मिल सवैया) दिवि दीपक-लोय बनी वनिता, जड़जीव पतंग जहाँ परते। दुख पावत प्रान गवाँवत हैं, बरजे न रहैं हठ सौं जरते॥ इहि भाँति विचच्छन अच्छन के वश, होय अनीति नहीं करते। परती लखि जे धरती निरखें, धनि हैं धनि हैं धनि हैं नर ते॥५८॥
परनारी एक ऐसी ज्वलित दीपक की लौ है जिस पर मुर्ख प्राणीरूपी पतंगे गिरते हैं, दुःख पाते हैं और जलकर प्राण गँवा देते हैं; रोकने और समझाने पर भी नहीं मानते, हठपूर्वक जलते ही हैं। विवेकी पुरुष इन्द्रियों के वश होकर ऐसा अनुचित कार्य नहीं करते।
अहो ! जो व्यक्ति परनारी को देखकर अपनी नजर धरती की ओर नीची कर लेते हैं; वे धन्य हैं ! धन्य हैं !! धन्य हैं !!!
१. पाठान्तर : खसी।