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जैन शतक
३२. चोरी-निषेध
(छप्पय) चिंता तजै न चोर रहत चौंकायत सारै। पीटै धनी विलोक लोक निर्दइ मिलि मारै ॥ प्रजापाल करि को! तोप सौं रोप उड़ावै।
मरै महादुख पेखि अंत नीची गति पावै॥ अति विपतिमूल चोरी विसन, प्रगट त्रास आवै नजर। परवित अदत्त अंगार गिन, नीतिनिपुन परसैं न कर ॥५६॥
चोर कभी भी और कहीं भी निश्चित नहीं होता, हमेशा और हर जगह चौकना रहता है । देख लेने पर स्वामी (चोरी की गई वस्तु का मालिक) उसकी पिटाई करता है। अन्य अनेक व्यक्ति भी मिल कर उसे निर्दयतापूर्वक बहुत मारते हैं । राजा भी क्रोध करके उसे तोप के सामने खड़ा करके उड़ा देता है। चोर इस भव में भी बहुत दुःख भोगकर मरता है और परभव में भी उसे अधोगति प्राप्त होती है।
चोरी नामक व्यसन अनेक विपत्तियों की जड़ है। उसमें प्रत्यक्ष ही बहुत दुः ख दिखाई देता है।
समझदार व्यक्ति तो दूसरे के अदत्त (बिना दिये हुए) धन को अंगारे के समान समझकर कभी अपने हाथ से छूते भी नहीं।
विशेष :-चोरी के सम्बन्ध में 'लाटी संहिता' में भी कहा गया है कि चोरी करनेवाले पुरुष को अवश्य महापाप उत्पन्न होता है. क्योंकि जिसका धन हरण किया जाता है उसको जैसा मरने में दुःख होता है वैसा ही दुःख धन के नाश हो जाने पर होता है। दूसरे का धन हरण करने से व चोरी करने से जो नरक आदि दुर्गतियों में महादु:ख होता है वह तो होता ही है, किन्तु ऐसे लोगों को इस जन्म में ही जो दुःख होते हैं, उनको भी कोई मनुष्य कह नहीं सकता। यथा
"ततोऽवश्यं हि पापः स्यात्परस्वहरणे नृणाम्। यादृशं मरणे दु:खं तादृशं द्रविणक्षतौ ॥ १६८॥ आस्तां परस्वस्वीकाराद्यदु:खं नरकादिषु। यदत्रैव भवेद् दुःखं तद्वक्तुं कः क्षमो नरः॥ १७० ॥"..