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जैन शतक
२८. मांसभक्षण-निषेध
(छप्पय) जंगम जिय कौ नास होय तब मांस कहावै। सपरस आकृति नाम गन्ध उर घिन उपजावै॥ नरक जोग' निरदई खाहिं नर नीच अधरमी।
नाम लेत तज देत असन उत्तमकुलकरमी॥ यह निपटनिंद्य अपवित्र अति, कृमिकुल-रास-निवास नित। आमिष अभच्छ या २ सदा, बरजौ दोष दयालचित!॥५२॥
मांस की प्राप्ति त्रस जीवों का घात होने पर ही होता है। मांस का स्पर्श, आकार, नाम और गन्ध - सभी हृदय में ग्लानि उत्पन्न करते हैं । मांस का भक्षण नरक जाने की योग्यतावाले निर्दयी, नीच और अधर्मी पुरुष करते हैं; उत्तम कुल और कर्म वाले तो इसका नाम लेते ही अपना भोजन तक छोड़ देते हैं। मांस अत्यन्त निन्दनीय है, अत्यन्त अपवित्र है और उसमें सदैव अनन्त जीवसमूह पाये जाते हैं । यही कारण है कि मांस सदैव अभक्ष्य बतलाया गया है । हे दयालु चित्त वाले! तुम इस मांस-भक्षणरूप दोष का त्याग करो।
२९. मदिरापान-निषेध
(दुर्मिल सवैया) कृमिरास कुवास सराय दहैं, शुचिता सब छीवत जात सही। जिहिं पान किर्यै सुधि जात हियँ, जननीजन जानत नारि यही॥ मदिरा सम आन निषिद्ध कहा, यह जान भले कुल मैं न गही। धिक है उनको वह जीभ जलौ, जिन मूढ़न के मत लीन कही॥५३॥
मदिरा जीवसमूहों का ढेर है, दुर्गन्धयुक्त है, वस्तुओं को सड़ाकर और जलाकर तैयार की जाती है। निश्चय ही उसके स्पर्श करने मात्र से व्यक्ति की सारी पवित्रता नष्ट हो जाती है और उसे पी लेने पर तो सारी सुध-बुध ही हृदय से जाती रहती है। मदिरा पीनेवाला व्यक्ति माता आदि को भी पत्नी समझने लगता है। इस दुनिया में मदिरा के समान त्याज्य वस्तु अन्य कोई नहीं है, इसलिए मदिरा उत्तम कुलों में ग्रहण नहीं की जाती है। तथापि जो मूर्ख मदिरा को ग्रहण करने योग्य बतलाते हैं, उन्हें धिक्कार है, उनकी जीभ जल जावे। १. पाठान्तर : जौन। २. पाठान्तर : याकौ।