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जैन शतक
२६. सप्त व्यसन
(दोहा) जूआखेलन मांस मद, वेश्याविसन शिकार। चोरी पर-रमनी-रमन, सातौं पाप निवार ॥५०॥
जुआ खेलना, मांसभक्षण, मद्यपान, वेश्यासेवन, शिकार, चोरी और परस्त्रीरमण - ये सात व्यसन हैं । तथा ये सातों पापरूप हैं, अत: इनका त्याग अवश्य करो।
२७. जुआ-निषेध
(छप्पय) सकल-पापसंकेत आपदाहेत कुलच्छन। कलहखेत दारिद्र देत दीसत निज अच्छन। गुनसमेत जस सेत केत रवि रोकत जैसै।
औगुन-निकर-निकेत लेत लखि बुधजन ऐसै॥ जूआ समान इह लोक में, आन अनीति न पेखिये। इस विसनराय के खेल कौ, कौतुक हू नहिं देखिये।।५१॥
जुआ नामक प्रथम व्यसन प्रत्यक्ष ही अपनी आँखों से अनेक दोषों से युक्त दिखाई देता है।
वह सम्पूर्ण पापों को आमंत्रित करने वाला है, आपत्तियों का कारण है, खोटा लक्षण है, कलह का स्थान है, दरिद्रता देने वाला है, अनेक अच्छाइयाँ करके प्राप्त किये हुए उज्ज्वल यश को भी उसीप्रकार ढक देने वाला है जिसप्रकार केतु सूर्य को ढंकता है, ज्ञानी पुरुष इसे अनेक अवगुणों के घर के रूप में देखते हैं, इस दुनिया में जुआ के समान अन्य कोई अनीति नहीं दिखाई देती; अत: इस व्यसनराज के खेल को कभी कौतूहल मात्र के लिए भी नहीं देखना चाहिए।
विशेष :-यहाँ जुआ को सातों व्यसनों में सबसे पहला ही नहीं, सबसे बड़ा भी बताया गया है तथा उसे अन्य भी अनेक दुर्गुणों का जनक बताया गया है। सो ऐसा ही अभिप्राय अनेक पूर्वाचार्यों ने भी अपने ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से प्रकट किया है। उदाहरणार्थ 'पद्मनंदि-पंचविंशतिका' के धर्मोपदेशनाधिकार के १७वें-१८वें श्लोकों को देखना चाहिए।