________________
* ॐ नमः सिद्धेभ्यः
जैन शतक
१. श्री आदिनाथ स्तुति
(सवैया) ज्ञानजिहाज बैठि गनधर-से, गुनपयोधि जिस नाहिं तरे हैं। अमर-समूह आनि अवनी सौं, घसि-घसि सीस प्रनाम करे हैं। किधौं भाल-कुकरम की रेखा, दूर करन की बुद्धि धरे हैं। ऐसे आदिनाथ के अहनिस, हाथ जोड़ि हम पाँय परे हैं ॥१॥
जिनके गुणसमुद्र का पार गणधर जैसे बड़े-बड़े नाविक अपने विशाल ज्ञानजहाजों द्वारा भी नहीं पा सके हैं और जिन्हें देवताओं के समूह स्वर्ग से उतरकर पृथ्वी से पुनः पुनः अपने सिर घिसकर इस तरह प्रणाम करते हैं मानों वे अपने ललाट पर बनी कुकर्मों की रेखा को दूर करना चाहते हों; उन प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ को हम सदैव हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं और उनके चरणों की शरण ग्रहण करते हैं।
(सवैया) काउसग्ग मुद्रा धरि वन में, ठाड़े रिषभ रिद्धि तजि हीनी'। निहचल अंग मेरु है मानौ, दोऊ भुजा छोर जिन दीनी॥ फंसे अनंत जंतु जग-चहले, दुखी देखि करुना चित लीनी। काढ़न काज तिन्हैं समरथ प्रभु, किधौं बाँह ये दीरघ कीनी॥२॥
भगवान ऋषभदेव कायोत्सर्ग मद्रा धारण कर वन में खडे हए हैं। उन्होंने समस्त ऐश्वर्य को तुच्छ जानकर छोड़ दिया है। उनका शरीर इतना निश्चल है मानों सुमेरु पर्वत हो। उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं को शिथिलतापूर्वक नीचे छोड़ रखा है, जिससे ऐसा लगता है मानों संसाररूपी कीचड़ में फंसे हुए अनन्त प्राणियों को दुःखी देख कर उनके मन में करुणा उत्पन्न हुई है और उन्होंने अपनी दोनों भुजाएँ उन प्राणियों को संसाररूपी कीचड़ से निकालने के लिए लम्बी की हैं। १. पाठान्तर : दीनी।