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जैन शतक
यद्यपि उक्त संशोधनों के अतिरिक्त मैं इस संस्करण में एक ऐसी विस्तृत एवं शोधपरक प्रस्तावना भी लिखना चाहता था, जिसमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार का परिचय, शतक-काव्यपरम्परा एवं उसमें जैन शतक का स्थान, जैन शतक का अन्य अनेक ग्रन्थों से तुलनात्मक अध्ययन एवं जैन शतक का काव्य-सौन्दर्य (भाव, रस, अलंकार, छन्द, भाषा, लोकोक्ति, मुहावरे) आदि विषयों पर कुछ समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया हो; पर यह कार्य अभी मुझसे नहीं हो सका है। आशा है विद्वान पाठक मुझे क्षमा करेंगे। दिनांक : 15 अगस्त, 2002
- वीरसागर जैन
समकित सावन आयौ
अब मेरै समकित सावन आयो ।।टेक॥ बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीष्म, पावस सहज सुहायो॥१॥ अनुभव-दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा घन छायो॥२॥ बोलै विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिनि भायो॥३॥ गुरुधुनि गरज सुनत सुख उपजै, मोर सुमन विहसायो॥४॥ साधक भाव अंकूर उठे बहु, जित-तित हरष सवायो॥५॥ भूल-धूल कहिं भूल न सूझत, समरस जल झर लायो॥६॥ 'भूधर' को निकसै अब बाहिर, निज निरचू घर पायो॥७॥
अहो! अब मेरे जीवन में सम्यक्त्व रूपी सावन आ गया है। मिथ्यात्वरूपी ग्रीष्म ऋतु समाप्त हो गई है और सहजतारूपी वर्षा ऋतु सुहावनी लगने लगी है।अनुभवरूपी बिजली चमकने लगी है, निजरमणता रूपी घनघोर घटा छा गई है। विवेकरूपी पपीहा बोल रहे हैं, जो सुबुद्धिरूपी सौभाग्यवती को बहुत प्रिय लग रहे हैं। गुरु-उपदेश रूपी गर्जना को सुनकर सुख उत्पन्न हो रहा है और मेरा मन रूपी सुन्दर मोर प्रसन्नता से हँस रहा है, नाच रहा है। साधक भाव रूपी अनेक अंकुर फूट पड़े हैं, जिससे जहाँ-तहाँ अपार आनन्द बढ़ता जा रहा है। अज्ञानता रूपी धूल अब कहीं भूल से भी नहीं दिखाई पड़ती। और समरसरूपी जल की झड़ी लग गई है।
कवि भूधरदास कहते हैं कि ऐसी स्थिति में अब, जिन्होंने अपना निरचूं (नहीं टपकने वाला) घर पा लिया है उनमें से कौन अपने घर से बाहर निकलेगा? तात्पर्य है कि ऐसी स्थिति में ज्ञानी तो अपने घर में ही मग्न रहना चाहते हैं, बाहर नहीं निकलना चाहते।