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________________ (10) सूक्ष्मसाम्पराय- यहाँ सूक्ष्म लोभ रह जाता है; यहाँ से उसे दबाकर अथवा क्षयकर आगे बढ़ते हैं। (11) उपशांत मोह- आठवें गुणस्थान में जिन्होंने मोह को दबाया था, यहाँ वे ही जाते हैं। यहाँ से पहले के गुणस्थानों में गिरने का डर बना रहता है। (12)क्षीण मोह-जिन्होंने आठवें अपूर्वकरण में मोह का क्षय किया था; वे ग्यारहवें गुणस्थान में न जाकर सीधे यहाँ आ जाते हैं। यहाँ से अब गिरने का डर नहीं रहता। यहाँ दसवें से सीधे आ सकते हैं। यहाँ पूर्ण वीतरागता आ जाती है। अंतिम समय में सभी घातिया कर्म समाप्त हो जाते हैं। (13) सयोग केवली- यह उत्कृष्ट दशा है। यहाँ जीव परमात्मा बन जाता है। इस स्थान पर उसे पूर्ण ज्ञान होने से सर्वज्ञता और अरिहंत दशा प्राप्त हो जाती है। यहाँ मन-वचन-काय का योग होने से सयोग केवली कहलाते हैं। तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनि इसी अवस्था में खिरती है और उनके उपदेश होते हैं। (14) अयोग केवली- यह गुणस्थानों में सर्वोकृष्ट दशा है। यहाँ अंतिम समय में आठों कर्मों का नाश होने से शरीर नहीं रहता। निराकार परमात्म दशा में पहुँचकर जीव लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला पर अनंत काल के लिए अनंत ज्ञान तथा दर्शन, अनंत सुख तथा अनंत शक्ति वाले गुणों से संपन्न हो जाता है। यह जीव की सबसे उत्कृष्ट तथा आनंदपूर्ण अवस्था है। इस प्रकार आध्यात्मिक विकास करके जीव पूर्ण सुखी हो जाता है तथा पुनः जन्म-मरण के दुःखों वाले संसार में नहीं आता। जीव के आत्मगत भावों का यह सुंदर वैज्ञानिक चित्रण जैन दर्शन की मौलिक देन है। 00 । जैन धर्म-एक झलक
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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