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________________ नहीं होती। यहाँ से मिथ्यात्व (1) में भी चला जाता है और सम्यक्त्व (4) में भी चला जाता है। यह सब स्वपुरुषार्थ पर निर्भर है। इस अवस्था में मृत्यु नहीं होती। (4) अविरत सम्यक्त्व - यह चतुर्थ गुणस्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। मोक्षमार्ग यहीं से प्रारंभ होता है। मिथ्यात्व का नाशकर जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है । भेद विज्ञान यहीं से प्रारंभ होता है। सम्यग्दृष्टि प्राप्त जीव संसार में रहकर भी उसी प्रकार उससे भिन्न रहता है जिस प्रकार कमल का फूल कीचड़ में रहकर भी कीचड़ से पृथक् रहता है। यद्यपि यह चारित्रमोह नामक कर्म के उदय के कारण बहुत व्रतों का पालन नहीं कर पाता है, इसलिए ‘अविरत' शब्द जुड़ा है किंतु सदाचार का पालक यह भी होता है। शास्त्रों में सम्यग्दृष्टि को एकदेश जिनेंद्र भी कहा गया है। (5) संयतासंयत- यह पाँचवी अवस्था है। इस अवस्था में स्थित जीव को श्रावक कहते हैं। यद्यपि वह व्रतों का पालन करता है किंतु आंशिक रूप से अतः इसे अणुव्रती भी कहते हैं। महाव्रतों का छोटा रूप अणुव्रत है। इस दशा में न पूर्ण संयम और न ही असंयम रहता है। गृहस्थ अवस्था यहीं तक है। ( 6 ) प्रमत्तविरत - इस अवस्था का जीव व्रतों का पूर्ण पालन कर महाव्रती हो जाता है। अब वह घर में नहीं रह सकता। महाव्रत होते हुए भी इस अवस्था में लेश मात्र प्रमाद भी रहता है जिससे साधना पूरी नहीं हो पाती है। यहाँ से गिरकर मिथ्यात्व स्थान में भी जा सकते हैं। (7) अप्रमत्त विरत यहाँ से आत्म ध्यान प्रारंभ होता है मुनि सभी प्रमादों से रहित महाव्रतों का पूर्ण पालन करता है। आत्मा की अनुभूति भी सही रूप से वहीं से प्रारंभ होती है। किंतु यत्किंचित् आत्मा का अनुभव चतुर्थ सम्यक्त्व गुणस्थान में भी हो सकता है; ऐसा कई लोग मानते हैं। कभी-कभी प्रमत्तविरत (6) का प्रभाव होने से ये प्रमत्त भी हो जाते हैं। पर पुनः अप्रमत्त भी हो जाते हैं। छठे और सातवें गुणस्थान में मुनि झूलते रहते हैं। (8) अपूर्वकरण - यह आठवाँ सोपान है। यहाँ पूर्व की तरह झूलना बंद हो जाता है और चरित्रबल बढ़ जाता है। यहाँ से कर्मों को दबाने वाली उपशम श्रेणी और कर्मों का क्षय करने वाली क्षपक श्रेणी में से किसी एक की शुरूआत होती है। यदि मोह कर्म को दबाकर मुनि आगे बढ़ता है तो आगे गिरने का डर है, यदि मोह कर्म को समाप्त कर आगे बढ़ता है तो फिर गिरने का डर समाप्त हो जाता है। इस अवस्था में साधक आत्मिक आनंद में निमग्न हो जाता है। ( 9 ) अनिवृत्तिकरण - यहाँ सभी सूक्ष्म इच्छाएँ, चारित्रमोह के अंग नष्ट हो जाते हैं। परिणामों (भावों) में निवृत्ति अर्थात् भेद होने के कारण इसे निवृत्तिकरण कहते हैं। जैन धर्म एक झलक 49
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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