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________________ सप्त तत्व और मुक्ति की विधि जिस प्रकार रोगी मनुष्य को रोग से मुक्ति पाने के लिए रोग और रोग के कारण पर विचार करना ज़रूरी है, उसी प्रकार संसार रूपी रोग से मुक्ति के लिए संसार और उसके कारणों पर विचार करना आवश्यक है। संसार ही दुःख का कारण है इसलिए जैनाचार्यों ने कहा कि यह जानना बहुत ज़रूरी है कि 1. दुःख किसे मिल रहा है? 2. दुःख किससे मिल रहा है? 3. दुःख का कारण क्या है? 4. दुःख बढ़ता कैसे है? 5. दुःख को रोका कैसे जाए? 6. दुःख दूर कैसे हो? 7. दुःख से मुक्त अवस्था कैसी है? इन प्रश्नों का उत्तर जैन दर्शन में सात तत्वों के माध्यम से दिया गया है। तत्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय में ही सात तत्वों का वर्णन है 'जीवाजीवास्त्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्। ये सात तत्व मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के कारण हैं। इन सात तत्वों पर सच्चा श्रद्धान किए बिना मनुष्य मोक्षमार्ग की पहली सीढ़ी पर भी नहीं चढ़ सकता। कहा गया है 'तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् तत्वों के प्रति सच्चा श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। ये सात तत्व निम्न प्रकार से हैं (1) जीव- ज्ञान दर्शन स्वभावी तथा चेतना से युक्त तत्व जीव कहलाता है। यह संसारी और मुक्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं। यही जीव संसार में भटककर दुःखी हो रहा है। (2)अजीव-जिसमें ज्ञान, दर्शन और चेतना न पाई जाए, ऐसे तत्व अजीव होते हैं। इन्हीं अजीवों के संसर्ग से जीव दुःख पाता है। (3) आस्रव-आत्मा में कर्मों का आना ही आस्रव तत्व कहलाता है। हमारे आस-पास फैले सूक्ष्म पुद्गल-परमाणु हमारे भावों के निमित्त पाकर कर्म रूप होकर हमारी आत्मा में आते रहते हैं। इनके इसी आने को आस्रव कहते हैं। जैसे नदी में नाव ले जाने पर यदि उसमें छेद हो तो पानी अंदर आता है; यही आना आस्रव है। इसमें मन, वाणी और शरीर की क्रिया कारण होती है। यदि मन, वाणी और शरीर क्रिया करते हैं तो आत्मा में शुभ कर्म आते हैं और यदि मन, वाणी और शरीर शुभ क्रिया जैन धर्म-एक झलक
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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