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सम्यग्दर्शन से युक्त सम्यग्दृष्टि मनुष्य का जीवन अलग तरह का होता है। वह अन्य संसारी जीवों की तरह पदार्थों में आसक्ति नहीं रखता। वह संसार में रहते हुए भी संसार से भिन्न रहता है, जैसे कीचड़ में खिलने वाला कमल उसमें रहकर भी उससे भिन्न रहता है।
सम्यक् ज्ञान
पदार्थ को जैसा वह है वैसा ही जानना सम्यक् ज्ञान है। सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यक् ज्ञान भी होता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष ये इसके दो भेद हैं। जो ज्ञान इंद्रियों के अधीन है वह ज्ञान परोक्ष ज्ञान है; जैसे- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तथा जो ज्ञान इंद्रियों की सहायता के बिना सीधे आत्मा से जाना जाता है उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं; जैसेअवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रमाण और नय के माध्यम से सही जानकारी होती है। सम्यक् ज्ञान को प्रमाण कहते हैं और प्रमाण के एक अंश को नय कहते हैं।
सम्यक् चारित्र
साधना का तीसरा सोपान सम्यक् चारित्र है अर्थात् सही आचरण सभी राग-द्वेष भावों को छोड़कर साम्य भाव से एक मात्र अपनी शुद्धात्मा में रहना निश्चय चारित्र है और इसकी प्राप्ति के लिए व्रत, उपवास तथा ध्यान योग करना व्यवहार चारित्र है। सभी आचारगत नियमों का पालन करना और धर्मानुसार आचरण करना भी व्यवहार से सम्यक् चारित्र कहा जाता है।
इस प्रकार इन तीनों की प्राप्ति से ही जीव मुक्त हो पाता है। चूँकि ये अनमोल हैं इसलिए इन्हें रत्न कहा जाता है और तीन हैं इसलिए 'रत्मन्त्रय' के रूप में वे विख्यात हैं। 00
अधूरी इच्छा
"संस्कृत-साहित्य का इतिहास तथा विविध ग्रंथों के लेखन कार्य के समय | मुझे जैन धर्म, दर्शन, साहित्य और इसके इतिहास के गहन अध्ययन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन सबके अध्ययन से जैन धर्म के प्रति मेरा काफ़ी लगाव रहा और प्रभावित रहा हूँ। मेरे द्वारा लिखित अन्य ग्रंथों की तरह जैन धर्म-दर्शन और साहित्य के इतिहास तथा विवेचन से संबंधित स्वतंत्र ग्रंथ लिखने की प्रबल भावना | रही, मन में इसकी पूरी रूपरेखा भी रही किंतु अन्यान्य-लेखन में व्यस्तता के चलते यह इच्छा अधूरी ही रही।"
- पद्म भूषण पं० बलदेव उपाध्याय, प्राकृत विद्या : वर्ष 13, अंक 4, पृ० 32
जैन धर्म एक झलक
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