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5. आकाश द्रव्य
जो शेष सभी द्रव्यों को रहने के लिए जगह देता है, वह आकाश द्रव्य कहलाता है। यह लोक तथा अलोक दोनों जगह एक अखंड रूप से विद्यमान है।
6. काल द्रव्य
जैन धर्म में काल को भी निश्चय कालाणु के रूप में द्रव्य माना गया है। यह वर्तना अर्थात् परिवर्तन में सहायक है । वर्तना ही इसका लक्षण है। इसके उपकार से ही हम भूत, वर्तमान और भविष्य काल की भेद-रेखा खींच पाते हैं। सैकेंड, मिनट, घंटा, दिन, सप्ताह, पक्ष, माह, वर्ष इत्यादि काल गणना का व्यवहार भी काल द्रव्य के कारण माना जाता है।
इस प्रकार इन छह द्रव्यों से मिलकर इस संपूर्ण ब्रह्मांड, सृष्टि या विश्व की रचना स्वतः ही हुई है। जैन धर्म इस बात पर विश्वास नहीं करता कि इस सृष्टि की रचना किसी ने की है। कोई भी व्यक्ति या भगवान न ही सृष्टि की रचना करने का कार्य करता है, न ही उसका पालनहार है और न ही इसे नष्ट करने की सामर्थ्य ही किसी ईश्वरादि के पास है। यह सब कुछ प्राकृतिक है । इनका परिणाम स्वतः होता है। इस तरह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - इन छह द्रव्यों में से अंतिम काल द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय अर्थात् बहुप्रदेशी कहलाते हैं।
जैन धर्म के प्रवर्तक
प्रमाण उपलब्ध हैं जो बताते हैं कि बहुत पहले से ही, प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से ही ऐसे लोग थे जो ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर की उपासना करते थे। इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं कि वर्धमान तथा पार्श्वनाथ के पूर्व से ही जैन धर्म प्रचलित था। यजुर्वेद में ऋषभ, अजितनाथ एवं अरिष्टनेमि तीन तीर्थंकरों के नाम उल्लिखित हैं। भागवद् पुराण इस विचार का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के प्रवर्तक थे।
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-डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन, पूर्व राष्ट्रपति इंडियन फिलोसफी : प्रथमखंड - पृ० 287,
जैन धर्म - एक झलक