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________________ (i) त्रस- दो इंद्रिय से लेकर पाँच इंद्रिय तक के सभी जीवों को त्रस जीव माना गया है; जैसे-द्वि-इंद्रिय जीव उन्हें कहते हैं जिनके पास स्पर्शन और रसना ये दो इंद्रियाँ हैं। वे जीव हैं- चावल जैसे अनाज में रहने वाले जीव, सजीव शंख इत्यादि। स्पर्शन, रसना और घ्राण -ये तीन इंद्रियाँ जिनके रहती हैं, वे त्रि-इंद्रिय जीव कहलाते हैं। त्रि-इंद्रिय जीव ये हैं- चींटी, खटमल, बिच्छु। स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु -ये चार इंद्रियाँ जिस जीव की होती हैं, उन्हें चतुरिंद्रिय जीव कहते हैं; जैसे- भौंरा, मक्खी आदि। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा कर्ण, ये पाँचों इंद्रियाँ जिनके होती हैं, वे पंचेंद्रिय जीव कहलाते हैं; जैसे- मनुष्य जाति तथा गाय, बैल, हाथी, सिंह, हरिण इत्यादि तिर्यंच जीव। (ii) स्थावर- इसमें स्थावर कायिक वे जीव हैं जिनके पास मात्र ‘स्पर्श' नामक की एक इंद्रिय ही है। वे पाँच प्रकार के हैं- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक। यहाँ कायिक का अर्थ शरीर है। इस प्रकार यहाँ तक जीवद्रव्य का संक्षिप्त विवेचन किया गया। 2. पुद्गल द्रव्य जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से युक्त हो, उसे पुद्गल (Matter) कहते हैं। पुद्गल द्रव्य की विस्तृत विवेचना की जाए तो आधुनिक परमाणु विज्ञान के अनेक रहस्यात्मक तथ्यों का उद्घाटन होता है। वर्तमान में आधुनिक विज्ञान तथा जैन दर्शन में परमाणु विज्ञान पर कई महत्वपूर्ण तुलनात्मक अनुसंधान कार्य हुए हैं तथा कई चल रहे हैं। 3.धर्म द्रव्य यहाँ धर्म शब्द से तात्पर्य जैन, बौद्ध, हिंदू, ईसाई धर्म से नहीं है बल्कि यह एक द्रव्य है। यह एक व्यापक तथा अदृश्य रूप से पूरे लोक में रहता है। यह द्रव्य स्वयं गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में सहायता करता है। जिस प्रकार मछली स्वयं चलती है। किंतु पानी उसे उदासीन प्रेरक के रूप में चलने में सहायता प्रदान करता है। उसी प्रकार धर्म द्रव्य हमारे आस-पास अदृश्य रूप से पूरे लोक में विद्यमान हैं और उसी के उपकार से हम सभी गति (गमन) की क्रिया कर पाते हैं। 4.अधर्म द्रव्य जिस प्रकार धर्म द्रव्य गमन में सहायक है उसी प्रकार अधर्म द्रव्य हमारे ठहरने (स्थिति) में सहायक होता है। यह भी एक, व्यापक व अदृश्य रूप से सभी जगह विद्यमान है। यह भी उदासीन प्रेरक की तरह है। स्वयं ठहरे अथवा रुके हुए जीव तथा पुद्गलों की स्थिति (ठहरने) में सहायक है। यह अधर्म द्रव्य न हो, तो सभी चलते ही रहें, रुकने जैसी क्रिया ही न हो। अतः हमारा ठहराव अधर्म द्रव्य का उपकार है। । जैन धर्म-एक झलक ।
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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