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________________ होकर सुख में मग्न न फूलें दुःख में कभी न घबरावें, पर्वत-नदी शमशान-भयानक अटवी से नहिं भय खावें। रहे अडोल अकंप निरंतर यह मन दृढ़तर बन जावे, इष्ट वियोग अनिष्ट योग में सहनशीलता दिखलावे।। सुखी रहें सब जीव जगत् के कोई कभी न घबरावे, बैर-पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नए मंगल गावे। घर-घर चर्चा रहे धर्म की दुष्कृत दुष्कर हो जावे, ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना मनुज जन्म-फल सब पावें।। ईति भीति व्यापे नहिं जग में वृष्टि समय पर हुआ करे, धर्मनिष्ठ होकर राजा भी न्याय प्रजा का किया करे। रोग, मरी, दुर्भिक्ष न फैले प्रजा शांति से जिया करे, परम अहिंसा धर्म जगत् में फैल सर्वहित किया करे।। फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर पर रहा करे, अप्रिय-कटुक-कठोर शब्द नहिं कोई मुख से कहा करे। बनकर सब ‘युग-वीर' हृदय से देशोन्नति रत रहा करें, वस्तु-स्वरूप-विचार खुशी से सब दुःख संकट सहा करें।। आत्म-कीर्तन सहजानंदी शुद्ध स्वभावी, अविनाशी मैं आत्मस्वरूप। ज्ञानानंदी पूर्ण निराकुल, सदा प्रकाशित मेरा रूप।। स्व-पर प्रकाशी ज्ञान हमारा, चिदानंद धन प्राण हमारा। स्वयं ज्योति सुखधाम हमारा, रहे अटल यह ध्यान हमारा।। देख मरे से मैं नहि मरता, अजर अमर हूँ आत्मस्वरूप। देव हमारे श्री अरहंत, गुरु हमारे निग्रंथ संत।। निज की शरणा लेकर हम भी, प्रकट कर परमातम रूप। सप्त तत्व का निर्णय कर ले, स्व-पर भेद विज्ञान सु कर ले।। निज स्वभाव दृष्टि में धर ले, राग-द्वेष सब ही परिहर लें। बस अभेद में तन्मय होवें, भूलें सब ही भेद विरूप।। आत्मचितंन हूँ स्वतंत्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता दृष्टा आतमराम।। टेक।। मैं वह हूँ जो है भगवान, जो मैं हूँ वह है भगवान। अंतर यही ऊपरी जान, वे विराग यहाँ राग वितान।। 1 ।। मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति सुखज्ञान निधान। जैन धर्म-एक झलक
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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