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________________ आज अनेक प्रार्थनाएँ, भजन, आरती बहुत प्रसिद्ध हैं। इनमें से पं० जुगलकिशोर मुख्तार कृत 'मेरी भावना' नाम से प्रसिद्ध एक सर्वव्यापक तथा प्रसिद्ध प्रार्थना यहाँ प्रस्तुत है। इसे स्मरण करके तथा इसके अर्थ को समझकर कोई भी मनुष्य इससे उत्पन्न आनंद को प्राप्त कर सकता है। यह एक सच्चे श्रद्धालु भक्त की भावना है मेरी भावना जिसने राग द्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया, सब जीवों को मोक्षमार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो, भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो।। विषयों की आशा नहिं जिनके साम्य-भाव धन रखते हैं, निज-पर के हित-साधन में जो निश-दिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगत् के दुःख-समूह को हरते हैं।। रहे सदा सत्संग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे, उन्हीं जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे। नहीं सताऊँ किसी जीव को झूठ कभी नहिं कहा करूँ, परधन वनिता पर न लुभाऊँ संतोषामृत पिया करूँ।। अहंकार का भाव न रक्खू नहीं किसी पर क्रोध करूँ, देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्ष्या-भाव धरूँ। रहे भावना ऐसी मेरी सरल-सरल व्यवहार करूँ, बने जहाँ तक इस जीवन में औरों का उपकार करूँ।। मैत्री भाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे, दीन-दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणास्रोत बहे। दुर्जन, क्रूर-कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे, साम्य भाव रक्खू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे।। गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे, बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे। होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं द्रोह न मेरे उर आवे, गुण-ग्रहण का भाव रहे नित दृष्टि न दोषों पर जावे।। कोई बुरा कहो या अच्छा लक्ष्मी आवे या जावे, लाखों वर्षों तक जीऊँ या मृत्यु आज ही आ जावे। अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे, तो भी न्याय मार्ग से मेरा कभी न पग डिगने पावे।। | जैन धर्म-एक झलक ।
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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