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जैन आगम साहित्य का इतिहास
विभिन्न भारतीय भाषाओं में विशाल जैन साहित्य उपलब्ध है। मूलतः प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा हिंदी भाषा में रचित दिगंबर तथा श्वेतांबर साहित्य इतना विशाल है कि जिसकी गणना करना बहुत कठिन कार्य होगा। जैन परंपरा में ज्ञानविज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र एवं प्रत्येक विधा पर साहित्य लिखा गया है। प्रत्येक काल में उस समय की प्रचलित प्रायः सभी भाषाओं में जैन आचार्यों तथा जैन विद्वानों ने अपनी रचनात्मक लेखनी ज़रूर चलाई है। अतः जैन वाङ्यम इतना विशाल है कि उसका इतिहास लिखना कोई आसान कार्य नहीं है।
आज जो भी मूल जैन साहित्य आगम तथा आगमोतर के रूप में उपलब्ध है, उसका संबंध भगवान महावीर की उपदेश परंपरा से है। भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया, उसे बारह अंग तथा चौदह पूर्व के नाम से जाना जाता है । उनके प्रधान शिष्य एवं प्रथम गणधर गौतमस्वामी ने इन पूरे उपदेशों को समवशरण सभा में भगवान से सुनकर ग्रहण किया था। गौतम गणधर ने यह ज्ञान अपने शिष्यों को दिया और इस प्रकार भगवान महावीर की उपदेशों से प्राप्त ज्ञान की परंपरा चलती रही। उस आग ज्ञान को लिपिबद्ध नहीं किया जाता था अपितु श्रुत (श्रवण) परंपरा से आचार्य अपने शिष्यों को ज्ञान प्रदान करते थे और वे उसे सुनकर स्मृति पटल पर याद कर आगमों को सुरक्षित रखते थे। किंतु कालांतर में जब यह देखा गया कि स्मृति-क्षीणता के कारण शिष्य-परंपरा भगवान के उपदेशों को भूलने लगी है, तब सामूहिक वाचनाओं के आधार पर उस आगम - ज्ञान को शास्त्रों (पुस्तकों) के रूप में लिपिबद्ध करने का उपक्रम प्रारंभ हुआ।
उपलब्ध दिगंबर आगम साहित्य
दिगंबर परंपरा में आचार्य धरसेन (ईसा पूर्व पहली शती) ने बचे हुए आगम ज्ञान को अपने दो शिष्यों आचार्य पुष्पदंत और भूतबली स्वामी को दिया, जिन्होंने ‘षट्खंडागम’ नाम के वृहद् सूत्रग्रंथ की रचना शौरसेनी प्राकृष भाषा में की। आचार्य गुणधर ने 'कसायपाहुड़' नामक आगम लिखकर ज्ञान को सुरक्षित रखने का प्रयास किया। इसके अनंतर यतिवृषभाचार्य ने 'तिलोयपण्णत्ति' तथा आचार्य कुंदकुंद ने ‘समयसार’ आदि पाँच परमागम तथा अन्य ग्रंथ शौरसेनी प्राकृत भाषा में रचकर और इसके बाद अन्यान्य आचार्यों ने भगवान महावीर के मूल आध्यात्मिक ज्ञान को सँजोने का प्रयास किया। दिगंबर परंपरा यह मानती है कि बारह अंगों में से ग्यारह अंग जैन धर्म - एक झलक
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