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जाति नहीं। इसका जाति से कोई संबंध नहीं है। किसी भी जाति का मानव जैन धर्म का पालन कर सकता है। प्राचीन काल में ऐसा अधिकतर होता रहा है। किंतु अब तक के इतिहास में कभी किसी को जबरन जैन धर्मानुयायी नहीं बनाया गया और न इस तरह के विश्वास को पनपने दिया गया। यहाँ जाति का तात्पर्य मात्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र से नहीं है बल्कि मनुष्यों के अलावा पशुओं से भी है। तीर्थंकरों के समवशरण (धर्म उपदेश सभा) में उनके सर्वकल्याणकारी प्रवचन सुनने सभी जाति के मनुष्य तो आते ही थे; यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के बैठने की भी व्यवस्था थी क्योंकि उनके उपदेश सर्वभाषामयी जनभाषा प्राकृत में होते थे। यद्यपि उस समय देव भाषा संस्कृत में ही उपदेश देने की परंपरा थी किंतु भगवान महावीर ने ऐसा न करके लोक में राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचलित जनभाषा प्राकृत में ही उपदेश दिए और उनके उपदेशों पर आधारित सभी मूल-आगम भी प्राकृत भाषा में ही निबद्ध हुए। इस दृष्टि से यह भगवान महावीर की भाषायी क्रांति भी थी। __ भगवान महावीर पूर्वजन्म में सिंह थे। चारणऋद्धिधारी दो मुनियों ने आकाश मार्ग से गमन करते समय आकाश से नीचे उतरकर सिंह को संबोधन दिया था और सिंह को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई थी। अतः सभी संज्ञी पंचेंद्रिय जीव जैन धर्म को अपना सकते हैं तथा उसका पालन कर सकते हैं। इसी प्रकार मनुष्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सभी जैन धर्म का पालन कर सकते हैं।
जैन धर्म के सभी तीर्थंकर क्षत्रिय जाति के थे। भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम तथा अन्य दस गणधर ब्राह्मण जाति के थे। गौतम गणधर ने भी दिगंबर मुनिदीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त किया था और मोक्षगामी बने।
जैन धर्म के अनुसार संसार के सभी जीवों की सभी आत्माएँ समान हैं तथा प्रत्येक आत्मा स्वपुरुषार्थ द्वारा आत्मविकास करती हुई भक्त से भगवान परमात्मा बनकर परमपद पा सकती है। इस प्रकार इस संसार में सभी लोग चाहे वे किसी भी जाति के हों, जैन धर्म का पालन कर सकते हैं। जो लोग जैन धर्म को मात्र वैश्यों का धर्म मानते हैं या बतलाते हैं, वे वास्तव में अपनी अल्पज्ञता का ही परिचय देते हैं। वास्तव में तो जैन धर्म जन-जन का धर्म है।
दसवीं सदी के आचार्य श्री सोमदेव सूरि ने अपने नीतिवाक्यामृत में कहा है कि आसन-बर्तन इत्यादि जिसके शुद्ध हों, मांस-मदिरा आदि के त्याग से जिसका आचरण पवित्र हो और नित्य स्नान आदि के करने से जिसका शरीर शुद्ध हो, ऐसा शूद्र भी ब्राह्मणादिक के समान श्रावक धर्म का पालन करने योग्य है
“आचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्कारः शरीरशुद्धिश्च करोति
शूद्रानपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु योग्यान्। ( 7/12) भट्टारक सोमसेन के त्रैवर्णिकाचार में इसी संदर्भ में कहा गया है कि आचार
| जैन धर्म-एक झलक