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________________ कठोर तप करके मोक्ष प्राप्त किया, जिनकी विश्वप्रसिद्ध सत्तावन फुट की अद्भुत भव्य विशाल मूर्ति श्रवणबेलगोला (कर्नाटक प्रांत) में एक हज़ार वर्ष से स्थापित है। चौबीस तीर्थंकर चौबीस तीर्थंकरों की इसी दीर्घ परंपरा में इन्हीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के बाद तेईस और तीर्थंकर हुए, जिन्होंने मोक्षमार्ग का उपदेश देकर जैन धर्म की पुनः पुनः स्थापनाएँ कीं। जैन धर्म में चार संज्ञाएँ ऐसी हैं, जिनके बीच सामान्य जनों में अस्पष्टता बनी रहती है । वे चार संज्ञाएँ हैं(i) जिनेंद्र देव (ii) अरिहंत (iii) तीर्थंकर (iv) सिद्ध बहुत-से लोग इनमें अंतर नहीं कर पाते हैं तथा इन्हें एक ही अर्थ में लेते हैं। इसका थोड़ा-सा स्पष्टीकरण ज़रूरी है। प्रथम संज्ञा है 'जिनेंद्र' । यह सामान्य संज्ञा है। हम शेष तीनों को जिनेंद्र कह सकते हैं क्योंकि जिनेंद्र का अर्थ है जिन्होंने इंद्रियों को जीत लिया है और इनमें से सभी ने इंद्रियों को जीता है। दूसरी संज्ञा है 'अरिहंत' । इनकी परिभाषा यह है कि जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है, वे ‘अरिहंत' हैं। अब तक अनंतानंत अरिहंत हो चुके हैं। तीसरी संज्ञा है 'तीर्थंकर' । यद्यपि ये भी अरिहंत ही हैं किंतु ये सामान्य अरिहंत से कुछ अलग काम करते हैं। इनके 'तीर्थंकर' नामकर्म की पुण्य प्रकृति का विशेष उदय होता है तथा धर्म तीर्थ के प्रर्वतक होने के कारण ये 'तीर्थंकर' कहलाते हैं। इनके समवशरण (धर्मसभा) की रचना होती है । ये मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं; इनकी दिव्य ध्वनि खिरती है; इत्यादि। इनकी संख्या चौबीस ही है, क्योंकि यह पुण्य सभी अरिहंतों का नहीं होता। हम संक्षेप में कह सकते हैं कि सभी तीर्थंकर अरिहंत होते हैं लेकिन सभी अरिहंत तीर्थंकर नहीं होते। जैसे लोकसभा में सभी मंत्री सांसद होते हैं किंतु सभी सांसद मंत्री नहीं होते । चौथी संज्ञा है ‘सिद्ध’। जो ज्ञानावरणादि समस्त कर्मों का नाश करके मुक्त हुए और निराकार रूप में ऊर्ध्व लोक के अग्रभाग अर्थात् सिद्धालय में शाश्वत सुख स्वरूप में विराजमान हैं, वे 'सिद्ध' हैं। इस तरह जो पहले अरिहंत परमेष्ठी या तीर्थंकर पद पर प्रतिष्ठित थे, तब उनके चार घातिया कर्म (ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अंतराय) ही नष्ट हुए थे। बाद में उनके शेष बचे चार अघातिया कर्मों (वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र) का नाश स्वतः हो जाता है। इस प्रकार आठों कर्मों से मुक्त होने के बाद वे ही शरीररहित निराकार ब्रह्मस्वरूप 'सिद्ध' परमेष्ठी बन जाते हैं । जो अरिहंत एवं तीर्थंकर होते हैं, वे सभी 'सिद्ध' बनने के बाद समान हो जाते हैं। अरिहंत या सिद्ध होने के बाद वे पुनः कभी संसार में नहीं आते। जैन धर्म में भगवान या ईश्वर का अवतार नहीं होता है। जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकरों की परंपरा इस प्रकार विद्यमान है 2 जैन धर्म - एक झलक
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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