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जैन धर्म : इतिहास और वर्तमान
जैन धर्म
समस्त इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने के बाद प्रथम जिन तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) ने मनुष्यों को सुखी करने के लिए जिस धर्म को इस कर्मभूमि पर आज से लाखों वर्ष पहले पुनः स्थापित किया, वह धर्म ही 'जैन धर्म' कहलाता है। जो जिनेंद्र की पूजा करते हैं; उनके बनाए हुए रास्ते पर चलने का प्रयास करते हैं, वे जिनेंद्र के अनुयायी ही 'जैन' कहलाते हैं। यह जैन धर्म चिरकाल से भारत का मूल रहा है। इसलिए इस पर न ही बाहर से भारत में आने का आरोप है और न ही बौद्धों की तरह भारत से बाहर जाकर फैल जाने का। अहिंसा, त्याग, तपस्या, संयम का पालन करने वाला आध्यात्मिक जैन धर्म सदा काल से भारत में ही उत्पन्न हुआ और यहीं का होकर रह गया। आचार-विचार और आध्यात्मिक ह्रास की कीमत पर प्रचार-प्रसार जैनों को कभी प्रिय नहीं रहा। संख्यात्मक वृद्धि (Quantity) की अपेक्षा गुणात्मक (Quality) समृद्धि में ही जैनों का सदा से अधिक विश्वास रहा है।
इस पृथ्वी पर भोगभूमि के नष्ट होने के बाद कर्मभूमि के प्रारंभ में राजा ऋषभदेव ने जनता को पुरुषार्थ सिखाया और 'कृषि करो और ऋषि बनो' का पाठ पढ़ाया। उन्होंने असि, मसि, कृषि, विद्या (अंक एवं लिपि), शिल्प तथा वाणिज्य इन छह कर्मों का ज्ञान सभी को जीविकोपार्जन तथा श्रेष्ठ जीवन हेतु कराया। साथ ही प्रत्येक को आदर्श जीवन जीने की कला सिखाई। कई वर्षों तक राजपाट करके सब कुछ व्यवस्थित करने के बाद महाराज ऋषभदेव ने संयम और त्याग का मार्ग अपनाया। सारे वस्त्र-आभूषण, राजपाट त्यागकर नग्न दिगंबर मुनिदीक्षा धारण करके आपने कैलाश पर्वत पर जाकर कठोर तप किया और केवलज्ञान रूपी सर्वज्ञता प्राप्त की और अर्हत् बने। सभी जीवों को सुखी होने का उपाय बतलाया, मोक्षमार्ग का प्रतिपादन किया। कुछ समय बाद आठ कर्मों का नाश करके निराकार सिद्धावस्था को प्राप्त हो गए।
ऋषभदेव के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र भरत ने छहों खंडों पर विजय प्राप्त की और चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। भारत की जनता ने तथा अनेक वैदिक पुराणकारों ने तीर्थंकर ऋषभदेव के इन्हीं पुत्र 'भरत' के नाम से इस देश को 'भारतवर्ष' कहकर पुकारा और इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ गया। 'भारतवर्ष' नाम के पूर्व ऋषभदेव के पिता मनु
और कुलकर नाभिराज के नाम पर अपने देश का प्राचीन नाम 'अजनाभवर्ष' भी प्रसिद्ध रहा है। इन्हीं भरत ने तथा इनके छोटे भाई बाहुबली ने दिगंबर मुनिदीक्षा लेकर
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जैन धर्म-एक झलक