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पाठ ७: चतुर्दश गुणस्थान प्रश्न १:आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती के व्यक्तित्व-कर्तृत्व पर प्रकाश डालिए। उत्तर : “जह चक्केण य चक्की, छक्खंडं साहियं अविग्घेण।
तह मइ चक्केण मया, छक्खंडं साहियं सम्मं ।। जिसप्रकार चक्रवर्ती चक्ररत्न द्वारा निर्विघ्नरूपसे आर्य, म्लेच्छ आदि छह खण्डों को साध लेता है, उन पर अपना अखण्ड आधिपत्य स्थापित कर लेता है; उसीप्रकार मैंने अपने बुद्धिरूपी चक्र द्वारा षट्खण्डरूप आगम को अच्छी तरह साधा है, उनके विषय को हृदयंगम किया है, आत्मसात् किया है।" __उपर्युक्त कथन स्वयं आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा ३९७वीं में किया है। इससे ही उनकी अगाध विद्वत्ता, महानता का परिचय मिल जाता है।
जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्त, वेयणाखंड, वग्गणाखंड और महाबंध - इन छह खण्डों में विभक्त षट्खण्डागम ग्रन्थ वर्तमानयुगीन जिनवाणी के प्रथम श्रुतस्कंध का सर्वप्रथम लिपिबद्ध ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ सिद्धान्तग्रन्थ कहलाता है। इस ग्रन्थ को चक्रवर्ती के समान पूर्णतया हृदयंगम कर लेने से आप सिद्धान्त-चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित हुए।
राजा चामुण्डराय के समकालीन होने से आपका समय ग्यारहवीं सदी का पूर्वार्ध माना गया है। राजा चामुण्डराय प्रधानतम राजा राचमल्ल (रायमल्ल) के मंत्री तथा सेनापति थे। उनका घरेलू नाम गोम्मट था। ___अन्य जैनाचार्यों की प्रचलित परम्परा के समान आपके वर्तमान जीवन के संबंध में इससे अधिक कुछ भी ज्ञात नहीं है।
आप असाधारण विद्वान थे। आपके द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार इत्यादि उपलब्ध ग्रन्थ आपकी असाधारण विद्वत्ता और सिद्धान्त-चक्रवर्ती' पदवी को सार्थक करते हैं। इन ग्रन्थों की विषय-वस्तु संक्षेप में इसप्रकार है
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/९४ -
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