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________________ व्यय-ध्रौव्यात्मक होने से अपनी षट्कारकीय योग्यतापूर्वक ही अपना कार्य करती है; उसमें अन्य का कुछ भी हस्तक्षेप नहीं है। - यह समझ में आ जाने से मैं किसी का भला-बुरा कर सकता हूँ - इस भावना से होनेवाले पर कर्तृत्व संबंधी अहंकार आदि और दूसरों को अपने अधीन करने आदि रूप विकारी भाव नष्ट हो जाते हैं तथा मेरा कोई भला-बुरा कर सकता है - इस भाव से उत्पन्न होनेवाले दीनता, हीनता, सशंकता, पर के अधीन होने आदि रूप विकारी भाव नष्ट हो जाते हैं; जिससे जीवन सहज समतामय, स्वाधीनता-सम्पन्न, निर्भय, निश्शंक हो जाता है। २. इसी समझ के बल पर जीवन न्याय-नीति-सम्पन्न, सदाचारमय, अहिंसक, गृहीत मिथ्यात्व से रहित हो जाता है। ३. प्रवचनसार की १६ वीं गाथा की आचार्य अमृतचंद्रीय टीका के अनुसार इसी समझ के बल पर शुद्धात्म-स्वभाव की प्राप्ति के लिए बाह्य साधन खोजने की व्यग्रता नष्ट हो जाती है। जीवन-संशोधन-हेतु स्वतंत्रता और स्वावलम्बन की ओर का पुरुषार्थ उग्र हो जाता है। ४. आचार्य कुन्दकुन्ददेव प्रवचनसार में लिखते हैं - ___ “कत्ता करणं कम्मं, फलंच अप्पत्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णो, जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥१२६॥ - कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है - ऐसा निश्चय करने वाला श्रमण यदि अन्यरूप परिणमित नहीं होता है, तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है।" _' अर्थात् इस षट्कारकीय समग्र प्रक्रिया को समझ कर जो स्वात्मनिष्ठ होता है, वही परमात्मा बनता है। सम्यग्दर्शन से लेकर सिद्ध दशा पर्यंत शुद्धता प्राप्त करने का एकमात्र यही उपाय है। जब तक हम अन्य को अपने कार्यों का उत्तरदायी मानते रहेंगे; तब तक मोह, राग, द्वेष आदि विकारों का अभाव नहीं हो पाने से संसार नष्ट नहीं हो सकता है। ___ इसप्रकार संसार दशा नष्ट करने के लिए वीतरागता प्रगट करने हेतु, अपने कार्यों का उत्तरदायी स्वयं को स्वीकार करने के लिए यह षट्कारक का प्रकरण समझना अत्यन्त आवश्यक है। इत्यादि अनेकों लाभ इस प्रकरण को समझने से प्राप्त होते हैं। ० षट् कारक/९३
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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