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स्वयंभू रहने में सहायक हैं; तथापि उनमें से आचार्य अमृतचंद्र के अनुसार कुछ इसप्रकार हैं१. भाव शक्ति : “कारकानुगतक्रियानिष्क्रांतभवनमात्रमयी भावशक्तिः - (पर) कारकों के अनुसार होनेवाली क्रिया से रहित भवनमात्रमयी भाव शक्ति।" २. क्रिया शक्ति : “कारकानुगतभवत्तारूपभावमयी क्रियाशक्तिः - कारकों के अनुसार परिणमित होने रूप भावमयी क्रिया शक्ति।" ३. कर्म शक्ति : “प्राप्यमाणसिद्धरूपभावमयी कर्मशक्ति: – प्राप्त किए जाते सिद्धरूप भावमय कर्म शक्ति।" । ४. कर्तृ शक्ति : “भवत्तारूपसिद्धरूपभावभावकत्वमयी कर्तृशक्तिः - होनेपनारूप सिद्धरूप भाव के भावकत्वमयी कर्तृ शक्ति।" ५. करण शक्ति : “भवद्भावभवनसाधकतमत्वमयी करणशक्ति: - होते हुए भाव के होने के साधकतमपनेमयी करण शक्ति।" ६. सम्प्रदान शक्ति : "स्वयंदीयमानभावोपेयत्वमयी सम्प्रदान शक्ति:अपने द्वारा दिए जाते भाव को प्राप्त करने की पात्रतामय सम्प्रदान शक्ति।" ७. अपादान शक्ति : “उत्पादव्ययालिंगितभावापायनिरपायध्रुवत्वमयी अपादानशक्तिः - उत्पाद-व्यय से आलिंगित भाव का अभाव होने पर भी (स्वयं के) अभाव से रहित ध्रुवत्वमयी अपादान शक्ति।" ८. अधिकरण शक्ति : “भाव्यमानभावाधारत्वमयी अधिकरणशक्तिः - भाव्यमान भाव के आधारत्वमयी अधिकरण शक्ति।" ९. संबंध शक्ति : “स्वभावमात्रस्वस्वामित्वमयी संबंधशक्ति:- अपना भाव अपना स्व/वैभव है और स्वयं उसका स्वामी है - ऐसे संबंधमयी संबंध शक्ति।" .. __इत्यादि अपनी-अपनी अनन्त-अनन्त शक्तिआँ अपनी-अपनी वस्तु को पूर्णतया स्वयंभू रहने में सहायक हैं। प्रश्न १८ : इस सम्पूर्ण प्रकरण को समझने से हमें क्या लाभ है ? उत्तर : इस सम्पूर्ण प्रकरण को समझने से अनेकानेक लाभ हैं; जिनमें से कुछ मुख्य निम्नलिखित हैं - १. अनंत सामर्थ्य -सम्पन्न प्रत्येक वस्तु स्वयं स्वभाव से ही उत्पाद
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/९२ --