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स्वयं से ही हो रहा है; अत: वह सदा स्वयंभू ही है। उसका प्रत्येक कार्य अपनी षट्कारक आदि अनंत शक्तिओं द्वारा स्वयं से, स्वयं के लिए, स्वयं में से, स्वयं में, स्वयं ही होता है। उसे अन्य किसी की रंचमात्र भी अपेक्षा/ आवश्यकतानहीं है। इसप्रकार वह अपने प्रत्येक कार्य में सदा स्वयंभू ही है। . स्वयंभू का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार, १६वीं गाथा की अपनी तत्त्वप्रदीपिका टीका में, जो कुछ लिखा है, उसका हिन्दी सार इसप्रकार है – “शुद्धोपयोग की भावना के प्रभाव से समस्त घातिकर्म नष्ट हो जाने के कारण जिसने शुद्ध अनंत शक्तिवान चैतन्यस्वभाव प्राप्त किया है - ऐसा यह पूर्वोक्त आत्मा -
१. शुद्ध अनंत शक्तियुक्त ज्ञायकस्वभाव के कारण स्वतंत्र होने से जिसने कर्तृत्व के अधिकार को ग्रहण किया है - ऐसा; २. शुद्ध अनंत शक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाववाला होने के कारण स्वयं ही प्राप्य होने से कर्मत्व का अनुभव करता हुआ; ३. शुद्ध अनंत शक्तियुत ज्ञान-रूप से परिणमित होने के स्वभाव से स्वयं साधकतम होने के कारण करणता को धारण करता हुआ; ४. शुद्ध अनंत-शक्तियुक्त ज्ञानरूप परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होने से सम्प्रदानता को धारण करता हुआ; ५. शुद्ध अनंत शक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होते समय पूर्व में प्रवर्तमान विकल-ज्ञान-स्वभाव का नाश होने पर भी सहज-ज्ञान-स्वभावसे स्वयं ही ध्रुवताका अवलम्बन करने के कारण अपादानता को धारण करता हुआ और ६. शुद्ध अनंत शक्ति-युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव का स्वयं ही आधार होने से अधिकरणता को आत्मसात् करता हुआ स्वयं ही छह कारकरूप होने से अथवा उत्पत्ति की अपेक्षा से द्रव्य-भाव घातिकर्मों को दूर कर स्वयं ही आविर्भूत होने से स्वयंभू कहलाता है।" ___ अर्थात् पर के सहयोग बिना ही सर्वोत्तम कार्य कर लेनेवाले को स्वयंभू कहते हैं। प्रश्न १७ : वस्तु की कौन-कौन-सी शक्तिआँ वस्तु को स्वयंभू रहने में
सहायक हैं ?
उत्तर : वैसे तो वस्तु की सभी शक्तिआँ उसका अपना वैभव होने से उसे
- षट् कारक/९१ -