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प्रश्न १५ : जब प्रत्येक कार्य स्व-पर प्रत्यय सापेक्ष ही होता है, तब व्यवहार षट्कारकों को कार्य का कर्ता क्यों नहीं माना जाता है ? उत्तर : स्व-पर प्रत्यय सापेक्ष कार्य के व्यवहार षट्कारक उपचार से कर्ता आदि कहे जाते हैं; उपचार से कर्ता जाने-माने भी जाते हैं; परन्तु वे उसके वास्तविक कर्ता नहीं होने से उन्हें उसका वास्तविक कर्ता न तो जाना जाता है; न माना जाता है और न कहा जाता है।
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इसके कुछ कारण इसप्रकार हैं १. एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यंताभाव होने से; २. प्रत्येक द्रव्य अनंतवैभव-सम्पन्न होने के कारण स्वभाव से ही स्थाईत्व के साथ परिणमनशील होने से ; ३. वस्तु की शक्तिआँ अपना कार्य करने में पर की अपेक्षा नहीं रखतीं होने से ; ४. स्वयं में अविद्यमान शक्ति दूसरे के द्वारा दी जानी / उत्पन्न की जानी असम्भव होने से; ५. प्रत्येक वस्तु का स्वभाव पर से पूर्ण निरपेक्ष असहाय / परिपूर्ण होने से; ६. वस्तु-स्वभाव पर के द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता होने से; ७. वस्तु-स्वभाव पर को उत्पन्न नहीं कर सकता होने से ; ८. पर के साथ व्याप्य-व्यापक संबंध नहीं होता है और व्याप्य - व्यापक संबंध के बिना वास्तविक कर्ता-कर्म की स्थिति सिद्ध नहीं होने से ; ९. उपादानकारण के समान ही कार्य होने से ; १०. द्रव्य - गुण स्वयं अपनी पर्यायरूप परिणमित होने से इत्यादि कारणों से स्व पर प्रत्यय सापेक्ष कार्य का भी वास्तविक कर्ता आदि निमित्तरूप व्यवहार षट्कारकों को नहीं कहा जा सकता है। प्रश्न १६ : स्वयंभू किसे कहते हैं ?
उत्तर : पर के सहयोग बिना जो स्वयं के बल पर प्रतिष्ठित होता है, कुछ कर दिखाता है; उसे लोक में स्वयंभू कहा जाता है; प्रस्तुत प्रकरण में यह बताया जा रहा है कि यह आत्मा स्वभाव से तो ज्ञान - आनंद आदि अनन्त वैभव सम्पन्न भगवान है ही, पर्याय में भी ज्ञानानंद - स्वभावी भगवान स्वयं ही बनता है। पर के सहयोग बिना ही, पूर्ण स्वाधीनता से ज्ञानानंद-सम्पन्न भगवान हो गए होने से, उन्हें स्वयंभू कहा गया है।
'स्वयंभू' पद स्वयं और भू- इन दो पदों से मिलकर बना है। स्वयं = अपने आप/स्वभाव से, भू- होना / परिणमन करना । प्रत्येक द्रव्य स्वयं में एकत्व - विभक्त-स्वभावी पूर्ण प्रभुता सम्पन्न होने से उसका प्रत्येक कार्य तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/९०
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