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अन्य द्वारा नहीं की जाती है, पर से अकृत है; उसीप्रकार जीव का विकार भी कर्मकृत या परकृत नहीं है । "
वस्तु-स्वातंत्र्य को सुरक्षित रखते हुए पारस्परिक बननेवाले निमित्तनैमित्तिक संबंधों का उल्लेख जिनागम में बहुलता से उपलब्ध है; लोकव्यवहार में भी ऐसे विविध उल्लेख प्रचलित हैं। इसी अपेक्षा व्यवहार षट् - कारकों को कारक नाम दे दिया जाता है।
प्रश्न १४ : प्रत्येक द्रव्य में कार्य पाँच समवाय या निमित्त - उपादान की सन्निधि में होता है अथवा षट्कारक से होता है।
उत्तर : वास्तव में ये तीन कारण पृथक्-पृथक् नहीं हैं; वरन् पर्यायवाची हैं; अतः प्रत्येक कार्य के समय उसमें तीनोंप्रकार के कारणों की मीमांसा की जाती है। वह इसप्रकार है
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पाँच समवायवाली प्रथम शैली में जिसे स्वभाव कहते हैं; निमित्तउपादानवाली द्वितीय शैली में जिसे त्रिकाली उपादान कहते हैं; षट्कारक वाली तृतीय शैली में उसे अधिकरण और कर्ताकारक कहते हैं । प्रथम शैली में जिसे पुरुषार्थ कहते हैं; द्वितीय शैली में जिसे अनंतर पूर्व क्षणवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य कहते हैं; इस तृतीय शैली में उसे अपादान कारक कहते हैं। प्रथम शैली में जिसे काललब्धि और भवितव्य कहते हैं; द्वितीय शैली में जिसे उत्तर क्षणवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य और तत्समय की योग्यता कहते हैं; इस तृतीय शैली में उसे करण, सम्प्रदान और कर्मकारक कहते हैं । प्रथम और द्वितीय शैली में जिसे निमित्त कहते हैं; इस तृतीय शैली में उसे व्यवहार षट्कारक कहते हैं ।
इसप्रकार प्रत्येक कार्य में ये कार्योत्पादक सभी कारण होते ही हैं। इनमें भावगत भिन्नता नहीं है; मात्र शब्दगत / विवक्षागत / विवेचनगत भिन्नता है। प्रत्येक कार्य स्व-पर प्रत्यय सापेक्ष होता है । स्वभाव, पुरुषार्थ, काललब्धि, भवितव्य, त्रिकाली उपादान, अनंतर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय युक्त द्रव्य, उत्तर क्षणवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य, तत्समय की योग्यता और निश्चय / अभिन्न षट्कारकों को स्वप्रत्यय कहते हैं तथा निमित्त और व्यवहार / भिन्न षट्कारकों को परप्रत्यय कहते हैं ।
षट् कारक / ८९
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