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वज्रवृषभनाराच संहनन, पुरुष पर्याय आदि के आधार पर अरहंत दशा प्रगट हुई, अत: वे अधिकरण हैं। अशुद्धपर्याय पर : जीव को क्रोध आया' – इसमें जीव कर्ता है; क्रोध कर्म है; गाली आदि सुनना कारण होने से वे करण हैं; दूसरों को पीटने आदि के लिए आया, अत: वे सम्प्रदान हैं; बुरा करने आदि के विचारों में से क्रोध आया, अत: वे अपादान हैं; गाली देनेवाले पर आया, अत: वह
अधिकरण है। ___ इसप्रकार इनमें सभी सामग्री भिन्न-भिन्न हैं। परस्पर किसी का किसी के साथ अबिनाभाव संबंध भी नियामक नहीं है; औपचारिक है; अत: इन्हें व्यवहार या भिन्न षट्कारक कहते हैं। प्रश्न १३ : यदि व्यवहार षट्कारक, निश्चय षट्कारक में कुछ भी नहीं करते हैं तो उन्हें कारक क्यों कहा जाता है ? उत्तर : यद्यपि व्यवहार षट्कारक, निश्चय षट्कारक में कुछ भी नहीं करते हैं; तथापि इनके बीच में पारस्परिक निमित्त-नैमित्तिक संबंध स्वयमेव सहज घनिष्ठतम है; अतः इन्हें उपचार से कारक कहा जाता है। ___ जैसे यद्यपि कर्म का उदय जीव में विकार उत्पन्न नहीं कराता है; जीव भी कर्मों/कार्मण वर्गणा को कर्मरूप परिणमित नहीं कराता है। दोनों में अपनी-अपनी योग्यता से ही अपना-अपना कार्य होता है; तथापि निमित्त -नैमित्तिक संबंध भी घनिष्ठतम है; अत: जीव ने कर्म बाँधे, कर्म के उदय ने जीव को विकारी किया- ऐसा कहा जाता है। निमित्त-नैमित्तिक संबंध एक द्रव्य द्वारा अन्य द्रव्य में कुछ किए जाने का सूचक नहीं है; वरन् काल-प्रत्यासत्ति अर्थात् एक ही साथ अपनी-अपनी योग्यतानुसार कार्य हुआ है – इस तथ्य का विश्लेषक है। पंचास्तिकाय संग्रह गाथा ६६ की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने इसे अत्यंत स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है। जिसका सार इसप्रकार है - _ “जिसप्रकार सूर्य-चंद्र की किरणों का निमित्त पाकर बादलों के रंगबिरंगे रूप और इन्द्रधनुष आदि पुद्गलद्रव्यों की अनेकप्रकार की संरचना पर के द्वारा किए बिना स्वत: होती दिखाई देती है; उसीप्रकार द्रव्यकर्मों की बहुप्रकारता पर से अकृत है। जैसे द्रव्यकर्मों की विचित्र बहुप्रकारता
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/८८ .