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यह अनन्त शक्ति-सम्पन्न आत्मा अपने ज्ञायक स्वभाव से स्वतंत्रतया केवलज्ञानरूप परिणमित हुआ है; अतः स्वयं कर्ता और केवलज्ञान कर्म है अथवा केवलज्ञान से अभिन्न होने के कारण स्वयं ही कर्म है । अपने अनन्त सामर्थ्य-सम्पन्न परिणमन स्वभावरूप उत्कृष्ट साधन से केवलज्ञान को प्रगट करता है; अत: स्वयं ही करण है। स्वयं को ही केवलज्ञान देता है; अतः स्वयं ही सम्प्रदान है । अपने में से मति श्रुतादि अपूर्ण ज्ञान पर्याय का व्यय कर केवलज्ञान प्रगट करता होने पर भी स्वयं ध्रुव रहता है; अत: स्वयं अपादान है। अपने में अपने ही आधार से केवलज्ञान प्रगट करता है; अत: स्वयं अधिकरण है।
अशुद्धोपयोगी आत्मा स्वयं के ही षट्कारक से रागादि विकारीभावों. रूप परिणमित होता है। इसमें वे इसप्रकार घटित होते हैं
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जीव स्वतंत्ररूप से जीव-भाव को करता होने से वह स्वयं ही कर्ता है। उस जीव-भाव को स्वयं प्राप्त करता / पहुँचता होने से जीव-भाव ही कर्म है अथवा उससे अभिन्न होने से जीव स्वयं ही कर्म है। स्वयं ही जीव-भाव रूप से परिणमित होने की शक्तिवाला होने से जीव स्वयं ही करण है। स्वयं को ही जीव-भाव देता होने से वह स्वयं सम्प्रदान है। अपने पूर्व भाव का व्यय कर नवीन जीव-भाव करता हुआ जीव द्रव्यरूप से ध्रुव रहने के कारण स्वयं ही अपादान है । अपने से अर्थात् अपने आधार पर जीव-भाव करता होने से वह स्वयं ही अधिकरण है।
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इसप्रकार शुद्ध या अशुद्ध परिणमन के समय भी वास्तव में एक जीवद्रव्य ही अपनी षट्कारकीय योग्यता से उसरूप परिणमित होता है। इसे ही अभिन्न या निश्चय षट्कारक कहते हैं।
वास्तव में व्याप्य-व्यापक संबंध प्रत्येक पदार्थ का अपने द्रव्य-गुण -पर्यायों के साथ ही होता है; अन्य के द्रव्य-गुण- पर्यायों के साथ नहीं। इस व्याप्य - व्यापक संबंध के बिना वास्तविक कर्ता-कर्म की स्थिति नहीं बन सकती है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी समयसार की १०३वीं गाथा में तो यहाँ तक लिखते हैं -
"जो जम्हि गुण दव्वे, सो अण्णम्हि दुण संकमदि दव्वे । सो अण्णमसंकंतो, कह तं परिणामए दव्वं ॥ तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ८६