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समय तदनुकूल जिसका योग और उपयोग होता है, वह कर्ता कहलाता है। जैसे ज्ञान का कर्ता आत्मा या घड़े का कर्ता कुंभकार आदि। प्रश्न ६ : कर्म कारक का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : “कर्तुरीप्सिततमं कर्म-कर्ता को जो अत्यन्त इष्ट होता है, वह कर्म है।” अथवा “यः परिणामो भवेत्तु तत् कर्म - कर्ता के परिणाम को कर्म कहते हैं।" अहेतुक, सुनिश्चित भवितव्यता आदि के अनुसार द्रव्य जिस समय जिस पर्यायरूप परिणमित होता है, उस समय उसके लिए वही पूर्णतया प्रयोजनभूत/सार्थक होता है; अत: वह उसका कर्म कहलाता है। जैसे आत्मा का कर्म ज्ञान या कुंभकार का कर्म घड़ा आदि। प्रश्न ७ : करण कारक का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : “साधकतमं करणं- अतिशयवान साधन को करण कहते हैं। कर्ता जिस उत्कृष्टतम साधन/नियामक कारण/अबिनाभावी सामग्री से कार्य करता है, उसे करण कहते हैं। जैसे अनन्त शक्ति-सम्पन्न अपने परिणमन स्वभावरूप उत्कृष्ट साधन से ज्ञान होने के कारण, वह परिणमन स्वभाव करण है; चक्र, चीवर, दंड आदि साधनों से कुंभकार घड़ा बनाता है; अत: वे सभी करण हैं इत्यादि। प्रश्न ८ : सम्प्रदान कारक का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : "कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानं-कर्म जिसे अभिप्रेत होता है, उसे सम्प्रदान कहते हैं"; अथवा कार्य या परिणाम जिसे दिया जाता है, जिसके लिए किया जाता है, वह सम्प्रदान है। यह पद सम्, प्रऔर दान - इन तीन शब्दों से मिलकर बना है। सम्भ ली-भाँति, प्र-प्रकृष्ट/विशेष रूपसे, दान-देना; अर्थात् कार्य जिस विशिष्ट उद्देश्य से जिसके लिए किया गया है, जिससे समाश्रित है, वह सम्प्रदान है। जैसे ज्ञानरूप कार्य स्वयं आत्मा के लिए होने से आत्मा सम्प्रदान है; कुंभकार ने घड़ा, घड़ा के ग्राहक के लिए बनाया; अत: वह सम्प्रदान है, इत्यादि। प्रश्न ९ : अपादान कारक का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : "ध्रुवमपायेऽपादानं - जिसमें से कार्य किया जाता है, वह किसी विशिष्ट पर्याय के व्यय-सम्पन्न ध्रुव वस्तु अपादान कारक है।"
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/८४ -