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________________ इस प्रकार आपकी कृतिऔं क्रमश: भक्ति के माध्यम से पाठक की चित्तभूमि मृदु बनाकर, अष्ट पाहुड़ के माध्यम से देव - शास्त्र - गुरु का यथार्थ निर्णय कराती हईं, पंचास्तिकाय संग्रह और प्रवचनसार के माध्यम से 'सन्मात्र वस्तु' का निर्णय कराके, समयसार के माध्यम से भेदज्ञान द्वारा 'चिन्मात्र वस्तु' की पृथक् प्रतीति कराती हुईं, बारहाणुवेक्खा के माध्यम से समस्त पर-द्रव्यों के प्रति उदासीनभाव लाकर, नियमसार के माध्यम से साधक दशा का विश्लेषण कर, पुनः-पुनः आत्म-भावना को प्रेरित कर विशेष स्वरूप - स्थिरता के माध्यम से शिव-सुखमय सिद्ध दशा को प्राप्त कराने में समर्थ निमित्त हैं। इनसे ही आपका व्यक्तित्व और लक्ष्य भी परिलक्षित होता है। प्रश्न २ : कारक किसे कहते हैं ? उत्तर : जो क्रिया के प्रति प्रयोजक होता है, क्रिया-निष्पत्ति में कार्यकारी होता है, जिसका क्रिया के साथ सीधा संबंध हो; उसे कारक कहते हैं। कृ धातु से ण्वुल् प्रत्यय लग कर कारक शब्द बनता है । " करोति क्रियां प्रति निर्वर्तयति इति कारकः - क्रिया व्यापार के प्रति प्रयोजक को कारक कहते हैं । ' 99 प्रश्न ३ : कारक के कितने और कौन-कौन से भेद हैं ? तथा वे कार्य के निष्पन्न होने में कार्यकारी कैसे हैं ? उत्तर : कारक के छह भेद हैं- कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण। कार्योत्पत्ति में इनकी कार्यकारिता इसप्रकार है - किसी भी कार्य को देखते ही सबसे पहला प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि इसे किसने किया ? इसके उत्तर हेतु कर्ता कारक बताया गया । उस कर्ता ने क्या किया ? इसके उत्तर में कर्म कारक बताया गया । यह कार्य उसने कैसे किया ? इसके लिए करण कारक का ज्ञान कराया गया । उसने यह कार्य किसके लिए किया ? इसके उत्तर हेतु सम्प्रदान कारक बताया गया । यह कार्य उसने किसमें से किया ? इसके उत्तर में अपादान कारक बताया गया । तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ८२
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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