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यहाँ प्रारम्भ में पंचास्तिकाय, षड्द्रव्यों का संक्षिप्त विवेचन कर, बाद में स्वरूप-भेद-प्रभेद बताकर उनका विस्तार से वर्णन करते हुए सात तत्त्व, नौ पदार्थों का वर्णन किया है। अंत में निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग का निरूपणकर, अभेद रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को संक्षिप्त किन्तु स्पष्ट शैली में प्ररूपित किया गया है। नियमसार - १८७गाथाओं में लिखित, निज-भावना-निमित्त रचा गया यह ग्रन्थ शुद्धात्म-सेवी-साधुओं की अंतर्बाह्य परिणति को हस्तामलकवत् प्रदर्शित करने के लिए अद्वितीय है। प्रारम्भ में नियम, नियम-फल आदि की चर्चा करते हुए, छह द्रव्यों का सामान्य विवेचन कर, ध्येयभूत शुद्धात्मतत्त्व की प्रकृष्ट प्ररूपणा कर व्यवहारचारित्र का वर्णन किया है। तदनन्तर निश्चयपरक षडावश्यक क्रियाओं की विशद विवेचना करते हुए परम समाधि और परम भक्ति को भी स्पष्ट किया है। अंत में केवली भगवान के स्व-पर प्रकाशकता सिद्ध करते हुए, उन्हें निबंध सिद्ध कर, सिद्ध भगवान का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। अष्टपाहुड़ - अनुशासन-प्रशासन की मुख्यता से ग्रथित इस ग्रन्थ में दर्शन पाहुड़, सूत्र पाहुड़, चारित्र पाहुड़, बोध पाहुड़, भाव पाहुड़, मोक्ष पाहुड़, लिंग पाहुड़ और शील पाहुड़-इन आठ पाहुड़ों का संकलन है। इनके नाम ही प्रतिपाद्य-विषय के परिचायक हैं। बारहाणुवेक्खा - इस ग्रन्थ में ९१ गाथाओं द्वारा अनित्य आदि बारह भावनाओं का वर्णन करते हुए, एकमात्र शुद्धोपयोगरूप ध्यान को संवर का कारण बताकर, परमार्थ नय से आत्मा को संवरादि से रहित विचारने की प्रेरणा दी गई है। प्राकृत भक्ति - प्राकृत भाषा में लिखी गईं तीर्थंकर भक्ति, सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, चारित्र भक्ति, योगि भक्ति, आचार्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति और निर्वाण भक्ति-ये आठ भक्तिआँ नामानुसार आराध्य के गुणानुवाद सहित अंत में गद्यरूप अंचलिका-युक्त हैं तथा नंदीश्वर भक्ति, शांति भक्ति, समाधि भक्ति और चैत्य भक्ति-ये चार भक्तिआँ मात्र गद्यरूप अंचलिका मय ही उपलब्ध हुई हैं।
- षट् कारक/८१