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________________ नाटकत्रयी, कुन्दकुन्दत्रयी, कुन्दकुन्द के तीन रत्न - इत्यादि नाम से भी प्रसिद्ध हैं । - इनके अतिरिक्त 'बारहाणुवेक्खा' और 'प्राकृत भक्ति' भी आपकी कृतिऔँ मानी जाती हैं। कितने ही विद्वान ‘रयणसार' और 'मूलाचार' को भी आपकी ही कृतिऔँ मानते हैं। कुछ लोग 'कुरल काव्य' को भी आपकी कृति कहते हैं। यह भी कहा जाता है कि षट्खंडागम के प्रथम तीन खण्डों पर आपने परिकर्म नामक टीका भी लिखी थी; जो आज उपलब्ध नहीं है। आपकी सर्वमान्य कृतिओं का सामान्य परिचय इसप्रकार हैसमयसार - आचार्य अमृतचंद्र के अनुसार ४१५ और आचार्य जयसेन के अनुसार ४३७ गाथाओं में ग्रथित 'समयसार', अध्यात्म रस से ओतप्रोत आपकी एक बेजोड़ कृति है। नव तत्त्वों (पदार्थों) में छिपी हुई एक चैतन्य ज्योति को बताना ही इसका मूल प्रतिपाद्य है। यही कारण है कि यहाँ नव तत्त्वों का वर्णन भी भेदविज्ञान की प्रधानता से ही करते हुए उनसे भिन्न त्रिकाली, ध्रुव, शुद्धात्मा, भगवान आत्मा को पक्षातिक्रान्त एकत्वविभक्तरूप में दिखाया गया है। प्रवचनसार - आचार्य अमृतचंद्र के अनुसार २७५ और आचार्य जयसेन के अनुसार ३११ गाथाओं में समाहित यह ग्रन्थ प्रमाण- प्रमेय की मीमांसा करनेवाली, दार्शनिक शैली में लिखी गई एक अद्वितीय कृति है। इसमें अतीन्द्रिय और इन्द्रिय ज्ञान के रूप में प्रमाण का विश्लेषण, अतीन्द्रियज्ञान/ सर्वज्ञता-प्राप्ति का उपाय, सर्वज्ञता का विशद - स्वरूप विवेचित कर, इन्द्रियज्ञान-इन्द्रियसुख को हेय बताकर, सुखमय अतीन्द्रियज्ञान का प्ररूपण कर, उसके विषयभूत द्रव्य-गुण- पर्यायात्मक, उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक पदार्थों का सामान्य- विशेषरूप से विशद विवेचन कर, सर्वपदार्थों से पृथक् निजात्मतत्त्व का निरूपण करते हुए अंत में आत्म- आराधक मुनिवरों की अंतर्बाह्य दशा का विस्तार से वर्णन किया गया है। पंचास्तिकाय संग्रह - आचार्य अमृतचंद्र के अनुसार १७३ और आचार्य जयसेन के अनुसार १८१ गाथाओं में निबद्ध यह ग्रन्थ शास्त्राभ्यासी के लिए संक्षेप में समग्र वस्तु - व्यवस्था का परिज्ञान कराने में पूर्ण सक्षम है। तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/८० -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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