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उत्पन्न हुआ। जिसने 'जिनचंद्र' नामक आचार्य-मुनि के सदुपदेश से प्रभावित हो ११ वर्ष की अल्पवय में ही जिन-दीक्षा धारण कर ली। ४४ वर्ष की उम्र में इन्हीं 'जिनचंद्राचार्य से ही आपको आचार्य पद प्राप्त हुआ। ९५ वर्ष, १० माह, १५ दिन पर्यंत आप आत्म-आराधना, रत्नत्रयसाधना में संलग्न रह इस भारत भू को अलंकृत करते रहे।
आप ईसा की प्रथम सदी के आचार्य माने जाते हैं। 'अभिधान राजेन्द्र कोश' के उल्लेखानुसार आप विक्रम संवत् ४९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए थे।
आप कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य, एलाचार्य और पद्मनंदी - इन पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं।
विक्रम संवत् ९९० में हुए श्री देवसेनाचार्य ने अपने ‘दर्शनसार' ग्रन्थ में आपकी महिमा बताते हुए लिखा है कि -
“जइ पउमणंदिणाहो, सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण बिबोहइ तो समणा, कहं सुमग्गं पयाणंति ॥ श्री सीमंधर स्वामी से प्राप्त हुए दिव्यज्ञान द्वारा यदि श्री पद्मनंदीनाथ ने बोध नहीं दिया होता तो मुनिराज सच्चे मार्ग को कैसे जानते ?" ___ इससे उन्होंने विदेह क्षेत्र में विराजमान विद्यमान तीर्थंकर भगवान श्री सीमंधरनाथ के साक्षात् दर्शन किए थे-यह भी फलित होता है। १३वीं सदी के आचार्य जयसेन ने भी अपनी कृतिओं में इस कथन की पुष्टि की है। __ शास्त्रीय दृष्टि से वस्तु-स्वरूप की विवेचना करते हुए आध्यात्मिक दृष्टि से नय विवेचना द्वारा शुद्धात्म-स्वरूप के दिग्दर्शन का प्रयास आपके व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता है। ___ आपकी कृति रूप से प्रसिद्ध साहित्य में पंच-परमागम सर्वमान्य हैं। १. समयसार (समयपाहुड), २. प्रवचनसार (पवयणसारो), ३. पंचास्तिकाय संग्रह (पंचत्थिकाय संगहो), ४. नियमसार (णियमसारो), ५. अष्टपाहुड़ (अट्ठपाहुड)- आचार्य कुन्दकुन्द के ये पाँच ग्रन्थ पंच -परमागम' रूप में प्रसिद्ध हैं। इनमें से प्रारम्भिक तीन ग्रन्थ प्राभृतत्रयी,
- षट् कारक/७९