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इनकी उत्पत्ति को रोकने का एकमात्र उपाय उपलब्ध ज्ञान का आत्मकेन्द्रित हो जाना है। इसी से शुभाशुभ भावों का अभाव होकर वीतराग दशा प्रगट होगी और एक समय वह होगा जब समस्त मोह-राग-द्वेष का अभाव होकर आत्मा वीतराग परिणति रूप परिणत हो जाएगा / पूर्ण ज्ञानानन्दमय अव्याबाध सुख-शांति रूप परिणमित हो जाएगा।
सैनी पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, जागरुक, विवेक सम्पन्न, प्रत्येक व्यक्ति यह कार्य करने में पूर्ण सक्षम है। भाव यह है कि आत्मानुभूति के लिए स्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति को जितना ज्ञान प्राप्त है, वह पर्याप्त है। प्रयोजनभूत तत्त्वों का विकल्पात्मक सच्चा निर्णय हो जाने के बाद अप्रयोजनभूत बहिर्लक्षी ज्ञान की हीनाधिकता का इस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है ।
अपनी भूल से पर्याय में अनादि से ही उन्मार्गी रहने पर भी यद्यपि आत्म-स्वभाव कभी भी किंचित् भी नष्ट नहीं हुआ है; तथापि अपनी दृष्टि को समस्त परपदार्थों से हटाकर आत्मनिष्ठ किए बिना कभी भी आत्मा की वास्तविक अनुभूति प्रगट नहीं होती है; अतः आत्मानुभव के अभिलाषी मुमुक्षु को कभी भी पर के सहयोग की आकांक्षा से आकुलित नहीं होना चाहिए ।
इसप्रकार प्रयोजनभूत तत्त्वों का निर्णय कर तत्त्व - विचार / मंथन की विकल्पात्मक प्रक्रिया से पार हो निर्विकल्प अतीन्द्रिय आनंदमय आत्मानुभूति को व्यक्त कर हम भी अनन्त सुख - शान्ति सम्पन्न दशामय हों - यही सद्भावना है।
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आतम अनुभव आवै...
आतम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव आवै । और कछू न सुहावै, जब निज आतम अनुभव आवै ॥ टेक ॥ रस नीरस हो जात ततच्छिन अक्ष विषय नहिं भावै ॥ १ ॥ गोष्टी कथा कुतूहल विघटै, पुद्गल प्रीति नसावै । राग दोष जुग चपल पक्षजुत मन पक्षी मर जावै ॥ २ ॥ ज्ञानानन्द सुधारस उमगै, घट अन्तर न समावै । 'भागचन्द' ऐसे अनुभव को हाथ जोरि सिर नावै ॥ ३ ॥ आत्मानुभूति स्व- पर भेदविज्ञानमूलक है।
आत्मानुभूति और तत्त्वविचार / ७७