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'रंग' शब्द में गर्भित समस्त पुद्गल आदि पर पदार्थों, 'राग' शब्द में गर्भित आत्मा में उत्पन्न होनेवाले सभी शुभाशुभात्मक रागादि विकारी भावों और 'भेद' शब्द में गर्भित गुण गुणी, प्रदेश-प्रदेशवान तथा ज्ञानादि गुणों के विकास संबंधी तारतम्यरूप भेदों; इन सभी से भिन्न एकमात्र आश्रययोग्य ज्ञानानन्द-स्वभावी निज ध्रुव आत्मतत्त्व में वर्तमान प्रगट ज्ञानादि पर्यायों की सर्वस्व समर्पणमय स्थिरता ही आत्मानुभूति रूप दशा है।
यह आत्मानुभूतिमय दशा स्वयं आत्मा की होने से इसे व्यक्त करने में अन्य बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं है। आत्मानुभूति से पूर्व यद्यपि तत्त्वविचार-मंथन की प्रक्रिया ज्ञान में घटित होती है; तथापि तत्त्व-मंथनरूप विकल्प से यह आत्मानुभूति व्यक्त नहीं होती है; क्योंकि आत्मा निर्विकल्प स्वसंवेद्य तत्त्व होने से यह आत्मानुभूति भी निर्विकल्प स्वसंवेदनमय है तथा तत्त्व-मंथन विकल्पात्मक है।
आत्मानुभूति प्रगट करने के लिए जिन वास्तविकताओं की जानकारी आवश्यक है, उन्हें प्रयोजनभूत तत्त्व कहते हैं तथा उनके सम्यं निर्णय के लिए उनके संबंध में किया गया विकल्पात्मक प्रयत्न ही तत्त्व - विचार कहलाता है । मैं कौन हूँ ? (जीव तत्त्व), पूर्ण सुख क्या है ? (मोक्ष तत्त्व) इस वैचारिक प्रक्रिया के मूलभूत प्रश्न हैं।
मैं पर्याय में भी सुख कैसे प्राप्त कर लूँ ? अर्थात् आत्मा अतीन्द्रिय आनंदमय दशा को कैसे प्राप्त हो ? जीव तत्त्व, मोक्ष तत्त्व रूप कैसे परिणमित हो ? (संवर-निर्जरा तत्त्व) इत्यादि रूप में आत्माभिलाषी मुमुक्षु के मानस में सतत यह चिंतन चलता रहता है ।
वह विचार करता है कि चेतन तत्त्व से भिन्न जड़ (अजीव तत्त्व ) की सत्ता भी लोक में है; परन्तु मैं उससे दुखी नहीं हूँ। अपनी भूल से ही मुझमें उत्पन्न होने वाले मोह-राग-द्वेष आदि विकारों से मैं दुखी हूँ (आस्रव तत्त्व) । इस कारण ही मैं अनादि से शुभाशुभ भावों में उलझता आ रहा हूँ (बंध तत्त्व)। जब तक मैं अपने स्वभाव को अपनत्वरूप से पहिचान कर आत्मनिष्ठ नहीं हो जाता; तब तक मुख्यतया मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती ही रहेगी।
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ७६