________________
कारी अति आवश्यक होती है, उन्हें प्रयोजनभूत तत्त्व कहते हैं तथा उनके संबंध में किया गया विकल्पात्मक विचार ही तत्त्व-विचार कहलाता है। इसका विषय सुनिश्चित करते हुए कविवर पण्डित भागचन्दजी लिखते हैं"आकुलरहित होय इम निशदिन, कीजे तत्त्वविचारा हो। को मैं कहा रूप है मेरो, पर है कौन प्रकार हो। को भव कारण बंध कहा, को आस्रव रोकनहारा हो। खिपत कर्म बंधन काहे सौं, थानक कौन हमारा हो ।। इमि अभ्यास किए पावत है, परमानन्द अपारा हो। भागचंद यह सार जानकरि, कीजे बारंबारा हो। आकुल..॥"
अर्थात् निराकुल होकर सात तत्त्वों के विकल्पात्मक विचार की प्रक्रिया ही तत्त्व-विचार है। मैं कौन हूँ ? मेरा क्या स्वरूप है ? मैं अनादि से किनके संयोग में रह रहा हूँ ? मैं दु:खी क्यों हूँ ? वास्तव में दुःख क्या है? मैं सुखी कैसे हो सकता हूँ ? परिपूर्ण सुखमय दशा क्या है ? आत्माभिलाषी मुमुक्षु के मन में इन प्रश्नों के उत्तर रूप में सतत मंथन चलता रहता है। ___ इस युग के शतावधानी श्रीमद्रायचन्द्रजी ने भी अमूल्य तत्त्वविचार' में तत्त्व-विचार के विषय और महत्त्व को अति संक्षिप्त, सुबोध शैली में व्यक्त किया है। जिसका हिन्दी अनुवाद इसप्रकार है - "मैं कौन हूँ आया कहाँ से, और मेरा रूप क्या ?
संबंध दुखमय कौन है, स्वीकृत करूँ परिहार क्या ? इसका विचार विवेक पूर्वक, शान्त होकर कीजिए। .
तो सर्व आत्मिक ज्ञान के, सिद्धान्त का रस पीजिए॥ मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? मेरा रूप/स्वभाव क्या है ? किसका/ कौन सा/किसप्रकार का संबंध दु:खमय है ? मुझे किसे/क्या स्वीकार करना है, किसे/क्या छोड़ना है ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर का शान्त-मन से विवेक पूर्वक यदि विचार किया जाता है तो सम्पूर्ण आत्मिक ज्ञान के सिद्धान्त-रस को पीने/अनुभव करने का अवसर प्राप्त होता है।"
तत्त्व-विचार की प्रक्रिया बताते हुए कविवर पण्डित बनारसीदासजी नाटक-समयसार के बंध द्वार में लिखते हैं -
- आत्मानुभूति और तत्त्वविचार/७३