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बहिर्लक्षी ज्ञान की हीनाधिकता से आत्मानुभूति में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है। आत्मानुभव के लिए एकमात्र ज्ञान की एकाग्रता/आत्मनिष्ठता आवश्यक है। अपने प्रगट वर्तमान ज्ञान को सब ओर से समेट कर पूर्णतया अपने ज्ञानानन्द-स्वभावी ध्रुव आत्मतत्त्व में केन्द्रित कर देना ही आत्मानुभूति प्रगट करने की प्रक्रिया है। प्रश्न ३:रंग, राग और भेद से भिन्न आत्मा है-इसका भाव स्पष्ट कीजिए। उत्तर : यहाँ रंग, राग और भेद – ये तीनों पद उपलक्षण हैं अर्थात् इनमें अनेकानेक भाव गर्भित हैं। 'रंग' पुद्गल का विशेष गुण होने से यद्यपि वह मात्र पुद्गल को बताता है; परन्तु यहाँ वह उपलक्षण होने से रंग में पुद्गल आदि सम्पूर्ण पर पदार्थ गर्भित समझना चाहिए। आत्मा रंग से भिन्न है अर्थात् आत्मा अपने को छोड़कर अन्य सभी जीव, पुद्गल आदि सम्पूर्ण पर-पदार्थों से/अजीव तत्त्व से पूर्णतया पृथक् है। ___ 'राग' भी यहाँ मात्र राग का सूचक नहीं है; अपितु रागादि समस्त विकारी भावों का सूचक है। आत्मा राग से भिन्न है अर्थात् आत्मा में उत्पन्न होने वाले मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग आदि समस्त शुभाशुभ विकारी भावों से/आस्रव, बंध, पुण्य, पाप तत्त्व से आत्मा पूर्णतया पृथक् है। ___ 'भेद' भी यहाँ मात्र भेद का सूचक नहीं है; अपितु स्वभावगत भिन्नता और स्वाभाविक पर्यायों का सूचक है। आत्मा भेद से भिन्न है अर्थात् आत्मा गुण-गुणी भेद, पर्याय-पर्यायी भेद, प्रदेश-प्रदेशी/प्रदेशवान भेद, भाव-भाववान भेद, ज्ञानादि गुणों के विकास संबंधी तारतम्यरूप भेद से संवर, निर्जरा, मोक्ष तत्त्व से पूर्णतया पृथक् है। ___ संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि ज्ञानानन्द-स्वभावी निज भगवान आत्मा अपने से भिन्न सम्पूर्ण पर पदार्थों, समस्त भेदभावों, विकारी, अविकारी, अल्प-विकसित, अर्ध-विकसित, पूर्ण-विकसित समस्त पर्यायों से पूर्णतया पृथक्; अखण्ड, एकरूप रहनेवाला ध्रुव तत्त्व है। प्रश्न ४ : तत्त्व-विचार का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : आत्मानुभूति प्रगट करने के लिए जिन वास्तविकताओं की जान
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/७२