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वचनातीत दशा ही आत्मा का धर्म है, करने योग्य कार्य है, आत्मार्थी साधक का एकमात्र इष्ट है ।
प्रश्न २ : आत्मानुभूति प्रगट करने का उपाय क्या है ?
उत्तर : जैसे लोक में अपनी वस्तु का उपयोग करने के लिए पैसा आदि खर्च नहीं करना पड़ता है, अन्य की अपेक्षा / आवश्यकता नहीं होती है; उसी प्रकार आत्मानुभूति प्रगट करने के लिए बाह्य साधनों की अपेक्षा / आवश्यकता नहीं होती है । आत्मानुभूति में पर के सहयोग का विकल्प मात्र भी बाधक ही है, साधक नहीं है । आत्मानुभूतिमय दशा में पर संबंधी विकल्पमात्र भी इसकी एकरसता को छिन्न-भिन्न कर नष्ट कर देता है; अतः आत्म-साधना में पर के सहयोग की आकांक्षा से व्यग्र रहनेवाले साधक को आत्मानुभूति नहीं होती है। यही कारण है कि आत्मानुभव के अभिलाषी मुमुक्षु पर के सहयोग की कल्पना में आकुलित नहीं होते हैं।
आत्मानुभूति प्रगट करने की प्रक्रिया निरन्तर तत्त्व-मंथन की प्रक्रिया है; परन्तु तत्त्व - मंथनरूप विकल्पों से आत्मानुभूति प्रगट नहीं होती है। आत्मानुभूति अपनी पूर्व भूमिका तत्त्व-मंथन का भी अभाव करती हुई उदित होती है; क्योंकि तत्त्व-मंथन विकल्पात्मक है और आत्मा निर्विकल्प स्व-संवेद्य तत्त्व होने से आत्मानुभूति निर्विकल्प स्व-संवेदनमय है। आत्मानुभूति प्रगट करने के लिए अपने आत्मा से भिन्न शरीर-कर्म आदि समस्त जड़ पदार्थ, अन्य चेतन पदार्थ तथा आत्मा में उत्पन्न होने वाली समस्त विकारी-अविकारी पर्यायों को पर मानकर, उनसे दृष्टि हटाकर दृष्टि को आत्मसन्मुख करना होता है। यह कार्य कर्तृत्व के बोझ से रहित, आत्मरुचि की तीव्रता के बल पर सहज ही सम्पन्न हो जाता है। अपने ज्ञानानन्द-स्वभावी ध्रुव आत्मतत्त्व में अपना सर्वस्व समर्पण ही आत्मानुभूति प्रगट करने का उपाय है।
आत्मानुभूति प्रगट करने में अधिक विकसित ज्ञान का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। सैनी पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, जागृत विवेक - सम्पन्न, स्वस्थ मस्तिष्क व्यक्ति को उपलब्ध ज्ञान आत्मानुभव के लिए पर्याप्त है। प्रयोजनभूत तत्त्वों का विकल्पात्मक सच्चा निर्णय हो जाने के बाद अप्रयोजनभूत आत्मानुभूति और तत्त्वविचार / ७१