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छहढाला का उक्त सम्पूर्ण कथन आत्मानुभूति का मार्ग प्रशस्त करने वाले समयसार आदि शास्त्रों का सरल, सुबोध हिन्दी भाषा में संक्षिप्त सार है। विस्तार के लिए समयसार गाथा ६, १४, ३८, ७३, १८१, १८२, १८३, २०६ आदि; समयसार कलश ९, १०, १२, १३, ३१, १२६, १२७, १२८, १३२ इत्यादि का अध्ययन करना चाहिए।
आत्मानुभूति की महिमा बताते हुए कविवर पण्डित बनारसीदासजी नाटक-समयसार की उत्थानिका में लिखते हैं - "अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप।
अनुभव मारग मोख को, अनुभव मोख सरूप॥१८॥
अनुभव चिंतामणि रत्न है। अनुभव शान्त रस का कुँआ है। अनुभव मोक्ष का मार्ग है। अनुभव स्वयं मोक्ष स्वरूप है।" "अनुभौ के रसकौं रसायन कहत जग,
__ अनुभौ अभ्यास यह तीरथ की ठौर है। अनुभौ की जो रसा कहावै सोई पोरसा सु,
अनुभौ अधोरसासौं ऊरध की दौर है॥ अनुभौ की केली यहै कामधेनु चित्रावेलि,
अनुभौ को स्वाद पंच अमृत कौ कौर है। अनुभौ करम तोरै परम सौं प्रीति जोरै,
अनुभौ समान न धरम कोऊ और है॥१९॥ जगत के ज्ञानीजन अनुभव के रस को रसायन कहते हैं; अनुभव का अभ्यास एक तीर्थभूमि है। अनुभव की भूमि सकल सुख को उत्पन्न करने वाली उपजाऊ भूमि है; अनुभव नरकादि अधोगतिओं से निकालकर ऊर्ध्वगतिओं में ले जाता है। अनुभव का आनन्द कामधेनु और चित्रावेलि के समान अद्भुत है; इसका स्वाद पंचामृत भोजन के समान है। अनुभव कर्म का क्षय करता है, परम पद से प्रीति जोड़ता है; अनुभव के समान अन्य कोई धर्म नहीं है।"
इसप्रकार रंग, राग और भेद से भिन्न अपने ज्ञानानन्द-स्वभावी भगवान आत्मा में निर्विकल्प स्थिरता ही आत्मानुभूति है। यह ज्ञानानन्दमय
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/७० -