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जहँ ध्यान ध्याता ध्येय कौ, न विकल्प बचभेद न जहाँ । चिदभाव कर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ ।। तीनों अभिन्न अखिन सुध उपयोग की निश्चल दसा । प्रगटी जहाँ दृग ज्ञान व्रत ये, तीनधा एकै लसा ॥ ९ ॥ परमाण नय निक्षेप कौ, न उद्योत अनुभव में दिखै । दृग ज्ञान सुख बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखै ॥ मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं । चित्पिण्ड चण्ड अखण्ड सुगुण करण्ड च्युति पुनि कलनि तैं ॥ १०॥ यौं चिंत्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यौ । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्र कै नाहीं कह्यौ ॥ ११ ॥
जिन्होंने अत्यन्त तीक्ष्ण सुबुद्धि / प्रज्ञारूपी छैनी को अन्दर / आत्मा में डालकर वर्ण आदि सम्पन्न पुद्गल आदि से और रागादि भावों से अपने भाव को/ज्ञानानन्द-स्वभावी ध्रुवतत्त्व को पृथक् किया है; अपने में ही, अपने लिए, अपने द्वारा, अपने को, अपनत्वरूप से ग्रहण किया है; जिसमें गुण-गुणी, ज्ञाता - ज्ञान - ज्ञेय, ध्यान- ध्याता - ध्येय इत्यादि किसी भी प्रकार का भेद नहीं रह गया है; जहाँ किसी भी प्रकार का विकल्प या वचन - भेद भी नहीं है; जिसमें चैतन्यभाव कर्म, चिदेश आत्मा कर्ता, चेतना क्रिया इत्यादि भेद भी नष्ट होकर तीनों अभिन्न हो गए हैं; अतः किसी भी प्रकार की खेद-खिन्नता नहीं रह गई है; यही शुद्धोपयोगमय निश्चल दशा है; इसमें सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - ये तीन भेद व्यक्त हो जाने पर भी जो एक अखण्डरूप से सुशोभित है; यही आत्मानुभव की दशा है।
इस आत्मानुभवमय निर्विकल्प दशा में प्रमाण, नय, निक्षेप का प्रकाश / भेद दिखाई नहीं देता है। दर्शन, ज्ञान, सुख, बल आदि अनन्त गुणों के अखण्ड पिण्ड आत्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी उस समय मुझमें दिखाई नहीं देते हैं। मैं साध्य हूँ, मैं साधक हूँ, मैं कर्म और उसके फलों से बाधा रहित हूँ; मैं चैतन्य का पिण्ड, प्रचण्ड / दैदीप्यमान, अखण्ड, सुगुणों का करण्ड / पिटारा / समूह हूँ; मैं शरीर आदि से पूर्णतया पृथक् हूँ - ऐसा विचारकर जो अपने आत्मा में स्थिर हुए; उन्होंने वचन- अगोचर, इन्द्र, धरणेन्द्र, नरेन्द्र, अहमिन्द्र आदि को भी दुर्लभ अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त किया । " 'आत्मानुभूति और तत्त्वविचार / ६९