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"प्रथम सुद्रिष्टिसौं सरीररूप कीजै भिन्न,
तामैं और सूच्छम सरीर भिन्न मानिये । अष्टकर्मभाव की उपाधि सोऊ कीजै भिन्न,
तामैं सुबुद्धि कौ विलास भिन्न जानिये ।। तामैं प्रभु चेतन विराजत अखंडरूप,
वह श्रुतग्यान के प्रवांन उर आनिये । वाही कौ विचारकरि वाही में मगन हजे,
वाकौ पद साधिवे कौं ऐसी विधि ठानिये ॥ ५५ ॥ सर्वप्रथम भेदविज्ञान द्वारा औदारिक आदि स्थूल शरीर को आत्मा से भिन्न जानना चाहिए। तत्पश्चात् तैजस आदि सूक्ष्म शरीर को आत्मा से भिन्न जानना चाहिए। तदनन्तर आठ कर्मों की उपाधि से उत्पन्न रागादि विकारी भावों को आत्मा से भिन्न जानना चाहिए। तदुपरान्त उस भेदविज्ञान को भी आत्मा से भिन्न जानना चाहिए । भेदविज्ञान के माध्यम से जिस अखण्ड शोभायमान चेतनप्रभु को पृथक् किया था, उसका श्रुतज्ञान प्रमाण से निश्चय करना चाहिए। इसके बाद उसी का विचार करते-करते उसी में मग्न हो जाना चाहिए । उसका पद साधने की / आत्मानुभव से लेकर मोक्ष पद पर्यन्त प्राप्त करने की सतत यही पद्धति है । "
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निष्कर्ष यह है कि आत्माभिलाषी मुमुक्षु के मन में निरन्तर यह विचार चलता रहता है कि मैं अनादि-अनन्त ज्ञानानन्द-स्वभावी प्रभु परमात्मा हूँ । मुझसे पृथक् अनन्तानन्त जड़ सत्ताएं भी जगत में विद्यमान हैं। मैं अनादि से अपने स्वभाव को भूलकर, उनकी ओर आकर्षित हो रहा हूँ, जिससे मुझमें उनके प्रति मोह राग-द्वेष उत्पन्न हो रहे हैं। इसकारण शुभाशुभ भावोंमय परिणमन में ही उलझ - उलझकर मैं अनन्त दुःख भोग रहा हूँ। जब तक मैं अपने स्वभाव को पहिचानकर उसमें ही लीन नहीं हो जाता; तब तक मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती ही रहेगी। उनकी उत्पत्ति को रोकने का एकमात्र उपाय प्राप्त ज्ञान को आत्मकेन्द्रित करना है। इसी से शुभाशुभ भावों का अभाव और वीतरागभाव की उत्पत्ति होती है। आत्मस्वरूप में परिपूर्ण लीनता से शुभाशुभ भावों का पूर्णतया अभाव
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ७४